-
Notifications
You must be signed in to change notification settings - Fork 0
/
Hindi lines original.txt
2500 lines (2500 loc) · 539 KB
/
Hindi lines original.txt
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
21
22
23
24
25
26
27
28
29
30
31
32
33
34
35
36
37
38
39
40
41
42
43
44
45
46
47
48
49
50
51
52
53
54
55
56
57
58
59
60
61
62
63
64
65
66
67
68
69
70
71
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
116
117
118
119
120
121
122
123
124
125
126
127
128
129
130
131
132
133
134
135
136
137
138
139
140
141
142
143
144
145
146
147
148
149
150
151
152
153
154
155
156
157
158
159
160
161
162
163
164
165
166
167
168
169
170
171
172
173
174
175
176
177
178
179
180
181
182
183
184
185
186
187
188
189
190
191
192
193
194
195
196
197
198
199
200
201
202
203
204
205
206
207
208
209
210
211
212
213
214
215
216
217
218
219
220
221
222
223
224
225
226
227
228
229
230
231
232
233
234
235
236
237
238
239
240
241
242
243
244
245
246
247
248
249
250
251
252
253
254
255
256
257
258
259
260
261
262
263
264
265
266
267
268
269
270
271
272
273
274
275
276
277
278
279
280
281
282
283
284
285
286
287
288
289
290
291
292
293
294
295
296
297
298
299
300
301
302
303
304
305
306
307
308
309
310
311
312
313
314
315
316
317
318
319
320
321
322
323
324
325
326
327
328
329
330
331
332
333
334
335
336
337
338
339
340
341
342
343
344
345
346
347
348
349
350
351
352
353
354
355
356
357
358
359
360
361
362
363
364
365
366
367
368
369
370
371
372
373
374
375
376
377
378
379
380
381
382
383
384
385
386
387
388
389
390
391
392
393
394
395
396
397
398
399
400
401
402
403
404
405
406
407
408
409
410
411
412
413
414
415
416
417
418
419
420
421
422
423
424
425
426
427
428
429
430
431
432
433
434
435
436
437
438
439
440
441
442
443
444
445
446
447
448
449
450
451
452
453
454
455
456
457
458
459
460
461
462
463
464
465
466
467
468
469
470
471
472
473
474
475
476
477
478
479
480
481
482
483
484
485
486
487
488
489
490
491
492
493
494
495
496
497
498
499
500
501
502
503
504
505
506
507
508
509
510
511
512
513
514
515
516
517
518
519
520
521
522
523
524
525
526
527
528
529
530
531
532
533
534
535
536
537
538
539
540
541
542
543
544
545
546
547
548
549
550
551
552
553
554
555
556
557
558
559
560
561
562
563
564
565
566
567
568
569
570
571
572
573
574
575
576
577
578
579
580
581
582
583
584
585
586
587
588
589
590
591
592
593
594
595
596
597
598
599
600
601
602
603
604
605
606
607
608
609
610
611
612
613
614
615
616
617
618
619
620
621
622
623
624
625
626
627
628
629
630
631
632
633
634
635
636
637
638
639
640
641
642
643
644
645
646
647
648
649
650
651
652
653
654
655
656
657
658
659
660
661
662
663
664
665
666
667
668
669
670
671
672
673
674
675
676
677
678
679
680
681
682
683
684
685
686
687
688
689
690
691
692
693
694
695
696
697
698
699
700
701
702
703
704
705
706
707
708
709
710
711
712
713
714
715
716
717
718
719
720
721
722
723
724
725
726
727
728
729
730
731
732
733
734
735
736
737
738
739
740
741
742
743
744
745
746
747
748
749
750
751
752
753
754
755
756
757
758
759
760
761
762
763
764
765
766
767
768
769
770
771
772
773
774
775
776
777
778
779
780
781
782
783
784
785
786
787
788
789
790
791
792
793
794
795
796
797
798
799
800
801
802
803
804
805
806
807
808
809
810
811
812
813
814
815
816
817
818
819
820
821
822
823
824
825
826
827
828
829
830
831
832
833
834
835
836
837
838
839
840
841
842
843
844
845
846
847
848
849
850
851
852
853
854
855
856
857
858
859
860
861
862
863
864
865
866
867
868
869
870
871
872
873
874
875
876
877
878
879
880
881
882
883
884
885
886
887
888
889
890
891
892
893
894
895
896
897
898
899
900
901
902
903
904
905
906
907
908
909
910
911
912
913
914
915
916
917
918
919
920
921
922
923
924
925
926
927
928
929
930
931
932
933
934
935
936
937
938
939
940
941
942
943
944
945
946
947
948
949
950
951
952
953
954
955
956
957
958
959
960
961
962
963
964
965
966
967
968
969
970
971
972
973
974
975
976
977
978
979
980
981
982
983
984
985
986
987
988
989
990
991
992
993
994
995
996
997
998
999
1000
मोतियाबिंद का उपचार केवल शल्य-चिकित्सा द्वारा ही सम्भव है ।
इन्ट्रा कैनसूलर कैटरेक्ट एक्सट्रेक्शन ( Intra Capsular Cataract Extraction ) विधि में पूरा लैन्स कैपस्यूल निकाला जाता है , ऑपरेशन के बाद जाँच के उपरान्त चश्में का प्रयोग किया जाता है ।
ऑपरेशन के दौरान लैन्स प्रत्यारोपण आँख के अगले भाग , आइरिस के आगे किया जाता है ।
इक्स्ट्रा कैनसूलर कैटरेक्ट एक्सट्रेक्शन विधि में सामने वाला कैपस्यूल का हिस्सा तथा पूरा लैन्स मैटर निकाल लिया जाता है और पीछे वाला कैपस्यूल सुरक्षित छोड़ दिया जाता है ।
कैपस्यूलर बैग में लैन्स फिट किया जाता है ।
S.I.C.S ( Small Incision Cataract Surgry ) विधि में 6 मिमी. की एक टनल बनाई जाती है शेष विधि ECCE–IOL की तरह होती है ।
S.I.C.S ( Small Incision Cataract Surgry ) विधि में टाँके नही लगाये जाते हैं ।
काला मोतियाबिंद में नेत्र तंत्रिका धीरे -धीरे नष्ट होती है आँख में पानी का दबाव ज्यादा होने की वजह से या नेत्र तंत्रिका में रक्त पर्याप्त मात्रा में न पहुँचने की वजह से ऐसा होता है ।
काले मोतियाबिंद से होने वाली अधंता अंधता को रोका जा सकता है यदि इसका पता जल्दी लग जाए तथा इसका नियमित इलाज व जाँच होती रहे ।
जब आँखों में अतिरिक्त दबाव ज्यादा हो ।
यदि परिवार में किसी को काला मोतियाबिंद हो ।
अधिकांश मरीजों में आँख से पानी जाने का हिस्सा खुला होता है फिर भी कुछ कारणवस कारणवश पानी कम जाता है ।
अंदर का दबाव बढ़ता जाता है और नेत्र तंत्रिका नष्ट होती है , धीरे - धीरे मरीज अगल-बगल की चीजें नहीं देख पाता है , अगर समय पर इलाज न किया जाए तो नजर भी जा सकती है ।
प्रमुख लक्षण जिनके प्रकट होने पर रोगी को डॉक्टर से जाँच करानी चाहिए ।
रोशनी मे इंद्र धनुष के समान रंगीन गोले दिखाई देना ।
विशेष लैन्स या यंत्र के द्वारा नेत्र तंत्रिका की जाँच करेंगे की कितनी क्षति पहुँची है ।
फिल्ड टेस्ट जिसमें सामने देखते हुए साइड की चीजें देख सकने की क्षमता की जाँच होती है ।
एक विशेष लैन्स द्वारा पानी के बाहर जाने के हिस्से ( एंगल ) को देख सकते हैं ।
विटामिन-ए की कमी से कॉर्नियल कमजोर तथा घाव हो जाते हैं जिससे अन्त में अन्धापन होता है ।
विटामिन-ए की कमी खसरे तथा कुपोषण की स्थिति में और अधिक होती है ।
विटामिन-ए की कमी से रतौंधी हो सकती है ।
खाने में विटामिन-ए की मात्रा की कमी लगातार दस्त तथा कुपोषण में विटामिन-ए का अवशोषण ( Absorption ) कम होना ।
खसरे के समय व बाद में विटामिन-ए की मांग का अधिक होना ।
कम रोशनी में दिखाई देता है ।
स्वेत पटल सूखा हो जाता है ।
बिटोटस स्पॉट्स - श्वेत श्वेत पटल पर श्वेत श्वेत धब्बे दिखाई देते हैं ।
रतौंधी से बचने के लिए चौलाई , चने का साग , मैथी का साग , पालक , बन्दगोभी , धनिया , गाजर , पपीता , आम आदि का सेवन करें ।
माँ को दूध के लिए प्रोत्साहित करना ।
खसरे का समय पर टीका लगाना ।
विटामिन-ए की खुराक ( 1 लाख आई.यू. ) , खसरे के टीके समय तथा 3 वर्ष तक ( 2 लाख आई.यू ) 3 माह के अन्तराल पर देना ।
बच्चों को पौष्टिक आहार दिये जाने की आवश्यकता है ताकि कुपोषण से होने वाले कॉर्नियल ब्लाइन्डनेस से बचाया जा सकें ।
रूबेला के कारण होने वाले कन्जानाईटल कैटरेक्ट के लिये समय पर टीकाकरण किये जाने की आवश्यकता है ।
आँखों में चोट के लगने के कारण लगभग 20 से 40 प्रतिशत बच्चें एक आँख से अन्धे हो जाते हैं ।
आँखों की सुरक्षा के बारे में लोगों को शिक्षित किये जाने की आवश्यकता है ताकि पटाखें औद्योगिक दुर्घटनायें एवं रोड ट्रेफिक दुर्घटनायों से होने वाली अन्धता को बचाया जा सके ।
रोगों से आँखों के बचाव के लिये Environmental senitation की ओर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है तथा उपचार समय पर किये जाने की जरूरत है ।
धीरे-धीरे तथा बिना दर्द के एक या दोनों आँखों में एक माह या वर्ष में दृष्टि में धीरे-धीरे कमी आना ।
भूरा ( Gray ) या सफेद पुतली ( प्यूपिल ) होना ।
जब प्रकाश की किरणें दृष्टि पटल ( रेटिना ) पर नही पड़ती हैं या तो रेटिना के आगे या रेटिना के पीछे पड़ती है ।
जब प्रकाश की किरणें रेटिना से पहले एकत्रित हो जाती हैं ।
फंगस भी हमारे शरीर में रहने वाला ऐसा एक जीव है जो हमारे शरीर को नुकसान पहुँचाता है ।
फंगस नमी वाली जगह जैसे हमारे पैर के अंगूठे के नाखून के नीचे अपना घर बना लेते हैं ।
जिसे ओनिकोमाइसिस कहते हैं ।
मरीज नजदीक की चीजें साफ देख सकता है परन्तु दूर की चीजें देखने में परेशानी होती है ।
मरीज चीजों को देखने के लिये आँख के पास लाता है ।
क्लास में विद्यार्थी श्यामपट के काफी नजदीक बैठने की कोशिश करता हैं ।
जब प्रकाश की किरणें रेटिना के पीछे एकत्रित होती है यह ज्यादातर जवान बच्चों में देखा जाता है ।
सिर दर्द , आँखों में भारीपन , पढ़ने में परेशानी ।
आँख की मांसपेशियों की कमजोरी के कारण लैन्स अपना आकार नही बदल पाता पढ़ते या नजदीकी काम करते समय प्रकाश की किरणें रेटिना के पीछे पड़ती हैं यह 40 वर्ष और उससे ऊपर की उम्र में पाई जाती है ।
दूर पढ़ने-लिखने व कोई भी नजदीकी काम करने में धुंधलापन ।
यदि कोई रोशनी की किरण आँख के पर्दे के आगे या पीछे किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित नही हो पाती जिससे कि धुंधला दिखता है ।
दूर अथवा नजदीक देखने में धुंधलापन सर में दर्द होना आँख का लाल होना ।
सिलिंडरिकल ग्लासेस को हमेशा पहनना है ।
कैंसर एक जीवन शैली से उत्पन्न होने वाली बीमारी है ।
कैंसर हमारे गलत अचार , विचार व्यवहार और आहार से उत्पन्न होता है ।
अधिक सिगरेट पीने से फेफड़ों , स्वॉस की नलियों का कैंसर अधिक होता है ।
जैसे-जैसे हम विकास की ओर अग्रसर हो रहे है एवं संक्रामक रोगों पर निजात पा रहे हैं ।
वैसे-वैसे अपने जीवन की शैली में बदलाव के कारण कैंसर व हदय रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है ।
जापान में यह बीमारी नम्बर एक पर है विकसित देशों में यह बीमारी दूसरे नम्बर पर , और विकासशील देशों में यह तीसरे नम्बर पर है ।
भारत में आठ में से एक व्यक्ति अपने उमर में कभी भी कैंसर से पीड़ित हो सकता है ।
हमारे देश में जीवन शैली , रीती-रीवाज , धर्म भिन्न होने के कारण यह बीमारी अलग-अलग जगह में विभिन्न प्रकार से पायी जाती है ।
देश के सभी आंकडों का आंकलन कर देखा गया है शहरों में 40 प्रतिशत महिलाओं में बच्चेदानी के मुँह का कैंसर व स्तन कैंसर पाये जाते हैं ।
ग्रामीण महिलाओं में यह दोनों 60 से 65 प्रतिशत के बीच में है ।
पुरूषों में धूम्रपान एवं प्रदूषण से फेफड़े व श्वाँस साँस की नली का कैंसर अधिक पाया जाता है तथा गुटका , पान पराग , खैनी , सुरती से मुँह व पेट का कैंसर होने की अधिक सम्भावना पायी गयी है ।
कैंसर क्या है ?
कैंसर एक बीमारी का नाम है ।
कैंसर में शरीर में कोशिका अपने आप ही गुणात्मक तरीके से वृद्वि करती है और शरीर के नियमों को अनदेखा करती है ।
कोशिका शरीर के दूसरे भागों में भी पहुँच जाती है ।
कोशिका एक गिल्टी या घाव का रूप ले लेती है , और अपने सम्पर्क में आने वाली सभी तन्त्रों को नष्ट कर देती है ।
कैंसर 1000 से अधिक बीमारीयों का एक समूह है ।
हालांकि हर बीमारी एक दूसरे से काफी भिन्न होती है , परन्तु मूलतः सभी कैंसर शरीर की कुछ कोशिकाओं में अव्यवस्था के परिणामस्वरुप होते हैं ।
सामान्यतः सुसाध्य ट्यूमरों को शल्य-चिकित्सा द्वारा निकाला जा सकता है और इनके फिर से होने की संभावना नही होती ।
असाध्य ट्यूमर कैंसर होते हैं ।
असाध्य ट्यूमर निकट के ऊतकों और अंगों को नष्ट कर सकते हैं ।
कैंसर की कोशिकाएँ शरीर के अन्य भागों में फैल सकती हैं या रोगव्यापि कर सकती हैं , जिससे नए ट्यूमर पैदा हो सकते हैं ।
कैंसर चूँकि फैल सकता है , अतः आवश्यक है कि चिकित्सक तुरन्त यह पता कर लें कि क्या ट्यूमर बन गया है , और यह कैंसर है ।
कैंसर का पता चलते ही इसका इलाज आरम्भ किया जा सकता है ।
कैंसर के कारण ऐसे अनेक लक्षण दिखलाई पड़ने लगते हैं जो कैंसर होने का आभास देते हैं ।
कुछ महत्वपूर्ण लक्षणों का विवरण नीचे दिया जा रहा है ।
गुर्दे में ऑक्जेलेट पत्थरी रही हो तो आगे किन-किन चीजों से परहेज बरतना फायदेमंद हो सकता है ?
कोई भी घाव जो काफी समय से भरता नहीं हो ।
स्तन पर या शरीर में अन्य कहीं गाँठ या सूजन ।
शरीर के किसी भाग या अंग से असामान्य रूप से रक्त या मवाद आना ।
लगातार काफी समय तक खाँसी आना या आवाज भारी होना ।
खाना निगलने या शौच में कष्ट होना , लगातार अपच या कब्ज रहना ।
आँतों की सामान्य आदतों में परिवर्तन ।
तिल या मस्से के आकार , रंग या रुप में अचानक परिवर्तन ।
वैसे , ऐसे लक्षण केवल कैंसर के कारण ही पैदा नहीं होते , इनके और कारण भी हो सकते हैं ।
अतः इन्हें देखते ही कैंसर नहीं मान लेना चाहिये ।
दो सप्ताह तक इन लक्षणों के बने रहने पर इन्हें चिकित्सक को दिखलाएँ ।
इसमें कोई शक नहीं कि भारत में पाए जाने वाले अधिकतर कैंसर ( 60 - 70 प्रतिशत ) रोगों की शीघ्र पहचान संभव है ।
आवश्यकता है , इसके बारे में जानकारी बढ़ाने तथा हर व्यक्ति को अपना स्वंय ध्यान रखने की ।
कैंसर को शीघ्र पहचानकर , 60 - 70 प्रतिशत कैंसर रोगियों को जड़ से ठीक करना अब संभव है ।
यही नहीं शीघ्र पहचान और तुरन्त उपचार की लागत भी देर से उपचार के मुकाबले में बहुत कम है ।
कैंसर के लक्षणों से सचेत होने के अतिरिक्त सभी महिलाओं एवं पुरूषों को नियमित रुप से अपनी जाँच करवानी चाहिए ।
सामान्य परीक्षणों द्वारा कुछ प्रकार के कैंसर रोगों का पता किसी चिन्ह के प्रकट होने के पहले ही किया जा सकता है ।
किसी चिन्ह के प्रकट होने के पहले ही चिकित्सक मुख , स्तन , गर्भाशय-ग्रीवा ( सर्विक्स ) , त्वचा , बड़ी आंत , मलाशय , पुरस्थ-ग्रंथी ( प्रोटेस्ट ) , अण्डकोश ( टेस्टिकल ) आदि कैंसर रोगों का पता लगा सकते हैं ।
ग्रीवा का कैंसर स्त्रियों में होने वाला एक आम कैंसर हैं ।
भारत में औरतों में होने वाले कुल कैंसर रोगों में 40 प्रतिशत कैंसर गर्भाशय-ग्रीवा के होते हैं ।
लसीका ग्रन्थियाँ लसीका धमनियों द्वारा एक दूसरे से जुड़ी हुई होती हैं और एक सफेद तरल द्रव बनाती हैं जिसे लसीका कहते हैं ।
लसीका धमनियों का जाल रक्त धमनियों की तरह पूरे शरीर में फैला होता है ।
लसीका ग्रंथियाँ कैंसर कोशिकाओं को छानकर अपने तक सीमित रखने का प्रयत्न करती हैं ।
कैंसर बढ़ जाने पर वह ऐसा नहीं कर पातीं और लसीका द्वारा कैंसर शरीर के एक भाग से दूसरे भाग तक फैलने लगता है ।
इसी कारण शल्य चिकित्सक आमतौर पर गर्भाशय-ग्रीवा के आस-पास की लसीका ग्रंथियों को भी निकाल लेते हैं ।
गर्भाशय-ग्रीवा का कैंसर रक्त प्रवाह के द्वारा भी फैल सकता है ।
त्वचा में खासकर तिल या मस्से किसी प्रकार की नई वृद्वि या परिवर्तन के लिए आप नियमित रुप से जाँच करवाए ।
किसी भी परिवर्तन को तुरंत चिकित्सक को दिखलाएँ ।
सामान्य डॉक्टरी जाँच के दौरान डॉक्टर को त्वचा की भी जाँच करनी चाहिए ।
बडी आंत और मलाशय के कैंसर का शीघ्र पता लगाने के लिए नियमित डॉक्टरी जाँच करवाना महत्वपूर्ण है ।
मलाशय की जाँच करने के लिए चिकित्सक दस्ताना चढ़ी हुई अंगुली मलाशय में डालकर , रोग का पता लगा सकता है ।
50 वर्ष की आयु के बाद , हर व्यक्ति की वार्षिक जाँच आवश्यक है ।
बड़ी आंत के कैंसर के कारण मल के साथ रक्त आ सकता है ।
निश्चित निदान के लिए विस्तृत जाँच आवश्यक है 50 वर्ष की आयु पार कर लेने वाले व्यक्ति के मलाशय और बड़ी आंत की जाँच करने के लिए डॉक्टर को 3 से 5 वर्ष की अवधि में सिग्माइडोस्कोपी ( मलाशय की दूरबीन जाँच ) करनी चाहिए ।
डॉक्टर द्वारा पुरस्थ ग्रंथी के कैंसर का आंरभिक स्थिति में पता लगाने का अत्यंत विश्वसनीय तरीका चढ़ी हुई उंगली का परीक्षण है ।
40 साल से अधिक आयु के सभी व्यक्तियों की वार्षिक जाँच अवश्य की जानी चाहिए ।
वार्षिक जाँच से अवश्य पुरस्थ ग्रंथी में अनियमित या असामान्य सख्त क्षेत्र का पता लग सकता है और जाना जा सकता है कि यहाँ ट्यूमर है या नहीं ।
अण्ड ग्रंथीय कैंसर का पता अधिकतर आदमी स्वंय कर सकता है ।
प्रत्येक मास स्वंय जाँच करके पुरूष अपनी अण्ड ग्रंथियों में परिवर्तन का पता लगा सकते हैं ।
गरम जल से स्नान करते समय या उसके बाद , जब अण्डकोष शिथिल होता है , इसकी जाँच का सबसे अच्छा समय होता है , क्योंकि इस स्थिति में किसी भी परिवर्तन का सुगमता से पता लगाया जा सकता है ।
अण्ड ग्रंथी के स्वंय परीक्षण से यदि सूजन , गाँठ या किसी अन्य प्रकार के दोष का , खासकर अण्ड ग्रंथी को छूने से असामान्य दर्द , या भारीपन का पता चलता है तो डॉक्टर को दिखलाना चाहिए ।
डॉक्टर द्वारा अण्ड ग्रंथियों की जाँच भी मनुष्य की नियमित वार्षिक डॉक्टरी जाँच का अंग होना चाहिए ।
मुख के कैंसर के चिन्हों के लिए मुख की नियमित रूप से जाँच आवश्यक है ।
मुख के ऊतकों का परिवर्तन कैंसर की आरम्भिक स्थिति हो सकती है ।
मुख के ऊतकों के परिवर्तन को आसानी से देखा और अनुभव किया जा सकता है ।
दंत चिकित्सक को चाहिए कि वह हर रूप से हर रोगी की मुख की पूरी जाँच करें ।
मसूड़ों , होठों और गालों के रंग में होने वाले परिवर्तन पर ध्यान दिया जाना चाहिए ।
खुरण्ड ( पपड़ी ) दरार , सूजन , रक्त स्राव या मुख के किसी भी भाग में गाँठ अथवा गिलटी के बारे में विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
चिकित्सक या दंतचिकित्सक के पास जाकर जाँच अवश्य करवा लें ।
यदि आप तम्बाकू , पान , पानमसाला या जर्दे का सेवन करते हैं तो जाँच करवाना और भी आवश्यक है ।
आप स्वंय भी शीशे में अपना मुख देख सकते हैं और कोई परिवर्तन दिखाई देने पर डॉक्टर की सलाह ले सकते हैं ।
सभी महिलाओं को स्तन के स्वंय परीक्षण का ढंग जान लेना चाहिए और हर महिने अपने स्तनों का स्वंय परीक्षण कर लेना चाहिए ।
रजोधर्म अवधि के कुछ दिनों बाद स्तनों का परीक्षण करना ठीक होता है जब स्तनों के बड़े होने या दर्द होने की संभावना बिल्कुल नहीं होती ।
मासिक धर्म बंद हो जाने पर भी महिलाओं को हर महिने स्वंय परीक्षण के लिए एक दिन ( कभी भी ) नियुक्त कर लेना चाहिए ।
40 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं के लिए यह परीक्षण विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है ।
40 वर्ष से अधिक आयु में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है ।
यदि किसी महिला के स्तन में गाँठ या किसी प्रकार के परिवर्तन का आभास होता है तो उसे चिकित्सक से सम्पर्क करना चाहिए ।
स्तन की लगभग 80 प्रतिशत गाँठें कैंसर नही होती परन्तु एक चिकित्सक ही इसकी सही पहचान कर सकता है ।
महिला की डॉक्टरी जाँच करते समय स्तन में गाँठ या स्तनों के बहुत बड़े हो जाने जैसे किसी असामान्य परिवर्तन की जाँच अवश्य की जानी चाहिए ।
40 साल की आयु के बाद हर महिला को 1 से 2 वर्ष में मैमोग्राम करवाना चाहिए ।
महिला की उम्र 50 वर्ष हो जाय तो प्रत्येक वर्ष मैमोग्राम करवाना आवश्यक है ।
जिन महिलाओं की माताओं , बहनों , मौसियों आदि को कैंसर है उन्हें 25-30 वर्ष की आयु से ही वार्षिक स्तन जाँच तथा मैमोग्राफी करवानी चाहिये ।
कैंसर की जाँच पैथोलोजी परीक्षण के द्वारा की जाती है ।
एफ.एन.ए.सी. , बायोप्सी के द्वारा इन कोशिकाओं को सूक्ष्मदर्शी में देखा जाता है ।
अन्य जाँच से भी कैंसर का पता लगाया जा सकता है जैसे , सी.टी. स्केन , एम.एम.आर. , अल्ट्रासाउंड ।
प्रशिक्षण जाँच केन्द्र की सूची जहाँ कैंसर का परीक्षण कराया जा सकता है ।RD_PUNC
शल्य-चिकित्सा कैंसर के चरण पर निर्भर करता है ।
अगर कैंसर सीमित क्षेत्र में और प्रारम्भिक चरण में है तो प्रभावित क्षेत्र के साथ-साथ कुछ सामान्य क्षेत्र में भी हटाये जाते हैं ।
कोशिश की जाती है कि कैंसर का कोई भी कण न रह जाए ।
अगर कैंसर अन्य क्षेत्र में भी प्रवेश कर चुका है तो कैंसर का आकार कम करने के लिए उससे उत्पन्न होने वाली कठिनाई को कम करने के लिए शल्य-चिकित्सा की जाती है ।
विकिरण द्वारा कैंसर कोशिकाओं को जलाया जाता है ।
रेडियोधर्मी से पहले कैंसर का क्षेत्र , फैलाव , रोगी की क्षमता , कैंसर के आधार पर विकिरण का समय , चरण , क्षेत्र शक्ति का आंकलन किया जाता है ।
फिर त्वचा पर निशान लगाया जाता है ।
विकिरण के दौरान किसी दूसरे व्यक्ति का उस कमरे में प्रवेश वर्जित होता है ।
रेडियोधर्मी विकिरण से किसी प्रकार की कोई तकलीफ नही होती ।
कभी-कभी त्वचा लाल हो सकती है या रोगी को उल्टी आ सकती है ।
दवाओं द्वारा कुछ कैंसर को पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है जैसे रक्त कैंसर और गाँठों का कैंसर ।
ये दवाईयाँ कैंसर कोशिकाओं को समाप्त कर देती हैं ।
सामान्य कोशिकायें भी इन दवाओं से प्रभावित हो सकती हैं ।
कोशिकाओं के प्रभावित होने की वजह से रोगी के बाल , नाखून , गिर सकते हैं ।
खून में कमी आ सकती है जिसकी वजह से थकान लगती है ।
अगर रोगी नियमित साइकल से , सही मात्रा में दवाई ले और स्वस्थ भोजन खाये तो बिल्कुल ठीक हो जाता है ।
इलाज के दौरान निरन्तर खून की जाँच करनी चाहिए , साफ पानी व साफ खाना लेना चाहिए ।
किसी बीमार व्यक्ति के साथ नहीं बैठना चाहिये क्योंकि दवाओं से प्रतिरोधक शक्ति काफी कम हो जाती है ।
कैंसर के लाईलाज रोगियों को पेलियेटिव केयर में रखा जाता है जिससे उनकी शारीरिक , मानसिक , पीड़ा को कम किया जाता है ।
अस्पताल की सूची जहाँ कैंसर के इलाज की सुविधा है ।
कैंसर से बचाव एवं जागरूकता ।
तम्बाकू व तम्बाकूओं से सम्बन्धित वस्तुओं से बचाव व परित्याग प्रदूषण नियत्रंण ।
स्वच्छ सामान्य शाकाहारी भोजन , प्रत्येक दिन ताजी हरी पत्तीदार सब्जी व ताजे फल का सेवन करना ।
प्रत्येक दिन कम से कम आधे घन्टे का व्यायाम तेजी से चलना खेलना ।
अधिक मिर्च , तला , भूना , मांस , घी , मदिरा में कमी करना ।
18 वर्ष से पहले शारीरिक सम्बन्ध न बनाना ।
अपने साथी के प्रति वफादार रहना जनन अगों को साफ रखना ।
बच्चों को लम्बे समय तक अपना दूध पिलाना ।
सम्भोग के दौरान निरोध का इस्तेमाल करना ।
समाज में जागरुकता लाना ।
धूम्रपान व तम्बाकू से होने वाले नुकसान की जानकारी देना ।
अपने आप को स्वच्छ रखना एवं बुरी आदतों से दूर रहना ।
सरकारी व गैर-सरकारी विभाग समाजिक संस्थाएँ ग्रामीण व शहरी जीवन शैली को सुधारने के लिए प्रेरित करना ।
स्तन व मुख की जाँच करने की जानकारी देना और 35 वर्ष के बाद साल में एक बार अपने स्वास्थ्य की पूरी जाँच कराना ।
आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ताओं को कैंसर सम्बन्धी लक्षण व स्व स्तन परीक्षण , मुख परीक्षण व बचाव से सम्बन्धित जानकारी दी गयी है ।
जूनियर हाईस्कूल में कैंसर , उसके लक्षण , तम्बाकू से नुकसान , स्व स्तन परीक्षण व बचाव से सम्बन्धित जानकारी दी गयी है ।
राज्य के सभी चिकित्सालय अधीक्षक बेस अस्पताल , जिला अस्पताल , महिला अस्पताल , मेडिकल कॉलेज व प्राईवेट अस्पतालों को एक कैंसर रजिस्टर बनाने को कहा गया है ।
कैंसर रजिस्टर में वे अपने बाहरी विभाग मे आये हुये कैंसर रोगियों को रजिस्टर करेगें और प्रत्येक माह यह रिर्पोट महानिदेशालय को प्रेषित करेंगें ।
कैंसर रजिस्ट्रर में हमें पता लग जायेगा कि राज्य में कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या क्या है और किस क्षेत्र मे कौन सा कैंसर अधिक पाया गया है ।
छोटीमाता या चिकन-पौक्स ( वेरिसिल ) ।
छोटीमाता एक वायरल है जो वेरिसिला जोस्टर ( वी.जेड.वी ) से प्रथम सम्पर्क के कारण उभरती है ।
बुखार और सारे शरीर पर विशिष्ट प्रकार की फुंसियाँ निकलना छोटीमाता रोग की पहचान है ।
हवा में निहित बूंदों द्वारा आमतौर पर वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैलता है ।
छोटीमाता से संक्रमित व्यक्ति के खाँसने या छींकने के कारण आस-पास के वातावरण में लार के छींटे फैल जाने से यह उभरता है ।
छोटीमाता या हर्पिस से सीधे सम्पर्क द्वारा भी यह फैल सकता है क्योंकि गीले घावों में संक्रामक द्रव होते हैं ।
कुछ मामलों में यह संक्रमित गर्भवती माँ से उसके अजन्में या नवजात शिशु को भी लग सकता है ।
फुन्सियाँ उभरने से कुछ दिनों पहले तक और सारे घावों पर पपड़ी जमने से पहले तक यानी उनके सूख जाने तक छोटीमाता सर्वाधिक स्पर्शजन्य होता है जो अकसर चकत्तों के आरंभ होने के एक सप्ताह बाद होता है ।
बुखार , कंपकंपी , उबकाई और उल्टी सबसे साफ और सुविख्यात लक्षण हैं , फुन्सी और अत्यंत खुजलाहट भरी चकत्तियों का उभरना ।
अधिकांश बच्चों को 200-300 फुंसियाँ निकलती है जो बाद में पपड़ी या परत बन जाती हैं ।
छोटीमाता बच्चों और बड़ों , पुरूषों और महिलाओं दोनों को हो सकती है ।
अधिकांश लोग बचपन या किशोरावस्था के दौरान कभी न कभी छोटीमाता का शिकार होते हैं ।
लेकिन पहले कभी छोटीमाता का शिकार नहीं हुए वयस्क यदि कभी ऐसे मामले के सम्पर्क में आते हैं तो उन्हें संक्रमण का खतरा होता है और वयस्क अवस्था में उन्हें छोटीमाता हो सकती है ।
बच्चों की तुलना मे छोटीमाता किशोरों और वयस्कों में अधिक गंभीर होती है ।
बुखार ज्यादा लंबे समय तक रहता है ।
संक्रमित व्यक्तियों को स्कूल या काम से दूर रखने से वायरस का प्रसार कम करने में मदद मिलती है लेकिन टीकाकरण छोटीमाता की पीड़ा से बचने का एक प्रभावी उपाय है ।
तेज बुखार , तेज बदन दर्द , सिर दर्द , जोड़ों मे दर्द , आँख में दर्द तथा शरीर पर दाने का पाया जाना आदि लक्षणों से बुखार का अनुमान लगाया जाता है ।
छोटीमाता से ग्रसित गंभीर रोगियों में उपरोक्त सामान्य लक्षणों के अलावा दाँत से , मुँह से या नाक से खून आने की शिकायत हो जाती है ।
छोटीमाता के रोगियों मे टारनीक्वेट टेस्ट धनात्मक आता है तथा खून की जाँच कराने पर प्लेटलेट काउन्ट 1 लाख से कम पाया जाता है ।
डेंगू बुखार एडिस एजिप्टाई मच्छर के काटने के पश्चात होता है ।
एडिस एजिप्टाई मच्छर को टाइगर मौसक्विटो ( टाइगर मच्छर ) के नाम से भी जाना जाता है और यह दिन के समय काटता है ।
घर में , कूलर में , छत पर खुली टंकियों में , बेकार टीन के खाली डिब्बों में , टायर में , फूलदान में , खाली बोतलों , मनीप्लान्ट के पौधों में , बोतलों और सिस्टर्नों में पानी को एकत्र न रखें ।
घर में कूलर , बाल्टी , घड़े के पानी को प्रति दिन सप्ताह में दो बार बदलते रहें ।
घर के आसपास पानी न इकट्ठा होने दें ।
गड्ढों को मिट्टी डाल कर पाट दें ।
मिट्टी डालना संभव न हो सके तो उस गड्ढे में मिट्टी का तेल आदि छिड़क दें ।
शरीर पर नीम का तेल या सरसों के तेल का उपयोग करें ।
पूरी आस्तीन की कमीज तथा मोजे आदि का प्रयोग करें ।
बालक बालिकाओं को स्कूल जाते समय पूरी आस्तीन का कपड़ा , मोजे अवश्य पहनायें ।
घर में कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करवायें ।
घर तथा आस-पास वातावरण को स्वच्छ रखें ।
रोग प्रकोप के समय , ज्वर होने पर नजदीक के सरकारी अस्पताल प्रा०स्वा०केन्द्र में उपचार लें ।
सोते समय मच्छरदानी अथवा मच्छररोधी अगरबत्ती का प्रयोग अवश्य करें ।
घरों की खिड़कियों दरवाजों एवं रोशन दानों पर जाली अवश्य लगायें ।
डेंगू बुखार में कास्टायड दवाइयाँ न ली जायें ।
डायबिटीज एक ऐसी बीमारी है जिसके परिणामस्वरूप रक्त में बहुत अधिक शर्करा ग्लूकोज हो जाती है ।
डायबिटीज एक गंभीर बीमारी है , जिसे यदि नियंत्रित न किया गया तो जानलेवा हो सकती है ।
डायबिटीज रोग से ग्रसित होने पर हमारा शरीर इन्सुलिन बनाता है , जिससे शर्करा कम करने में मदद मिलती है ।
इन्सुलिन की कमी से रक्त में शर्करा बढ़ जाती है ।
यदि आपमें निम्नलिखित लक्षण मौजूद हैं तो आपको डायबिटीज हो सकती है ।
बार-बार पेशाब आना ।
अधिक प्यास लगना , घुंधला दिखाई देना ।
सेक्स संबंधी क्रियाओं में शारीरिक असमर्थता ।
पैरों का सुन्न हो जाना या उनमें झुनझनाहट होना ।
डायबिटीज से होने वाली समस्याएँ ।
डायबिटीज से निम्न समस्याएँ एवं जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं ।
रक्त में शर्करा की अधिकता , दीर्घकालीन जटिलताएँ ।
स्नायुओं को क्षति या न्यूरोपैथी ।
गुर्दो को क्षति या नेफरोपैथी ।
आँखों को क्षति या रेटिनोपैथी ।
ह्दय और रक्त वाहिनी की बीमारी एवं संक्रमण ।
डायबिटीज की दीर्घ कालिक जटिलताएँ ।
स्नायुओं को क्षति डायबिटीज पैरों और हाथों की स्नायुओं को क्षति पहुँचाती है ।
स्नायुओं को क्षति होने से झुनझुनाहट , सुन्न पड़ना , जलन या दर्द हो सकता है , जो अक्सर आप हाथ पैर की अंगुलियों के छोर से शुरू हो कर धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ता है ।
यदि इलाज न किया गया तो आप प्रभावित अंगों में महसूस करने की शक्ति गवां सकते हैं ।
गुर्दों को क्षति डायबिटीज से गुर्दों मे मौजूद नाजुक छनन संस्थान को क्षति पहुँच सकती है , जिससे गुर्दे काम करना बन्द कर सकते हैं और डायलासिस या गुर्दा प्रतिरोपण जरूरी हो सकता है ।
डायबिटीज आपकी आँखों की रेटिना को क्षति पहुँचा सकती है , जिससे अंधापन हो सकता है ।
हृदय और रक्त वाहिनी की बीमारी डायबिटीज की प्रमुख जटिलता है , हृदय और रक्त वाहिनियों की क्षति , जिससे दिल का दौरा , पक्षाघात और रक्त संचारण में खराबी हो सकती है ।
अध्ययनों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि दिल का दौरा और पक्षाघात का खतरा डायबिटीज वाले लोगों में , उन लोगों की अपेक्षा अधिक होता है जिन्हें डायबिटीज नहीं है ।
संक्रमण रक्त में शर्करा की अधिकता आपकी रोग प्रतिरोधक शक्ति को कम कर देती है और इससे संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है ।
आपके मुँह , मसूड़े , फेफड़े , त्वचा , पैर , गुर्दे , मूत्राशय और जननेन्द्रियों के क्षेत्र , सभी के सभी संक्रमण से आसानी से प्रभावित हो सकते हैं ।
डायबिटीज से सम्बद्ध जटिलताओं का खतरा , रक्त मे शर्करा ( ग्लूकोज ) के सही नियंत्रण से और स्वस्थ्य जीवन शैली अपना कर , काफी कम किया जा सकता है ।
नियमित डॉक्टरी जाँच द्वारा जटिलताओं का शीघ्र पता लगा कर नुकसान को पूर्व ठीक स्थिति में लौटाने या कम से कम करने के अवसर बढ़ जाते हैं ।
हर रोग एक प्रकार के विषाणु ( वायरस ) से होता है ।
विषाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि साधारण सूक्ष्मदर्शी ( माइक्रोस्कोप ) से भी नहीं देखे जा सकते हैं ।
दूषित मच्छर किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तो विषाणु उस व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं ।
लगभग 4 से 14 दिन के बाद उस स्वस्थ व्यक्ति में बीमारी के लक्षण दिखायी देने लगते हैं ।
डायबिटीज रोग से ग्रसित रोगी में प्रायः निम्न लक्षण पाये जाते हैं -
तेज बुखार ।
भयानक सरदर्द ।
गर्दन में अकड़न ।
शरीर में अकड़न ।
शरीर में झटके लगना ।
मितली व उल्टी आना ।
अर्द्ध अथवा पूर्ण बेहोशी आना ।
रोगी में उपर्युक्त लक्षण दिखाई देते ही उसे तुरन्त नजदीक के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र , तहसील स्तरीय राजकीय चिकित्सालय अथवा जिला चिकित्सालय में चिकित्सा हेतु भर्ती करवा देना चाहिये ।
मलेरिया रोग मच्छरों द्वारा फैलता है , इसलिये यह आवश्यक है कि समुदाय में मच्छरों की संख्या को घटाया जाए ।
रोग-वाहक मच्छर मुख्य रूप से घरों से बाहर धान के खेतों , पोखरों एवं पानी से भरे गड्ढों में रहते हैं ।
घर तथा बाहर की स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखें ।
गड्ढों को पाट दें , बड़ी-बड़ी घास व झाड़ियों को काट दें ।
शाम के समय पैन्ट , पैजामा , धोती , मोजे , पूरी बाँह का कुर्ता या कमीज पहनें ।
सोते समय जहाँ तक संभव हो मच्छरदानी का प्रयोग करें ।
जहाँ तक संभव हो बरसाती पानी को घर के आस-पास गड्ढों में इकट्ठा न होने दें ।
कीटनाशक दवाओं के छिड़काव तथा फॉगिंग ( धुआँ छोड़ने ) में स्वास्थ्य कर्मचारियों का सहयोग प्रदान करें ।
सुअर के बाड़ों में मच्छरों को जाने से रोकने के लिये महीन जाली का प्रयोग करें ।
समय से एन्सेफलाइटिस का टीका लगवाएँ ।
हेपेटाइटिस-ए विश्व भर में फैलने वाली एक सर्वाधिक व्यापक बीमारी है ।
यह हेपेटाइटिस-ए वायरस के कारण होती है और साफ सफाई के खराब स्तर वाले स्थानों पर यह आम है ।
वायरस यकृत ( लीवर ) पर हमला करता है और मरीजों मे भिन्न तीव्रता की बीमारी उभारता है ।
हेपेटाइटिस-ए वायरल मल मे फैलता है और प्रथमतः गुदा-मुख मार्ग द्वारा प्रसार करता है ।
वायरस तुलनात्मक रूप से लक्षण प्रकट करने में लंबा समय लेता है और संक्रामक होता है ।
अतः संक्रमित व्यक्ति विकसित होने से पूर्व ही बीमारी अन्य लोगों तक फैला सकता है ।
उबकाई उल्टी , पीलिया ( आँखों , त्वचा व मूत्र का पीलापन ) जुलाब , फीके रंग की शौच , पेट दर्द , कमजोरी , थकान , बुखार , कपकपी , भूख न लगना , गले में दर्द इत्यादि ।
लक्षणों के उभरने की बारंबारता तीव्रता व्यक्ति की आयु पर निर्भर है ।
हेपेटाइटिस-ए और बी दो भिन्न प्रकार के वायरल हेपेटाइटिस हैं जो अलग-अलग वायरसों के कारण होते हैं ।
हर प्रकार का हेपेटाइटिस अलग है ।
हेपेटाइटिस-बी के प्रति टीकाकरण से हेपेटाइटिस-ए से बचाव नहीं होता ।
इसी तरह हेपेटाइटिस-ए के टीके से हेपेटाइटिस-बी से बचाव नहीं होता ।
अब टीका उपलब्ध है और हेपेटाइटिस-ए के खिलाफ सुरक्षा का सर्वाधिक व्यवहार्य उपाय है ।
प्राथमिक टीकाकरण व्यक्ति को एक वर्ष तक सुरक्षित रखता है और 6 माह बाद दिया जाने वाला बूस्टर डोज अनुमानतः कम से कम 20 वर्ष सुरक्षा देता है ।
ग्लेक्सोम्थिक्लाइन द्वारा एक संयुक्त टीका उपलब्ध है जो 0 , 1 , 6 महीनों पर दिए जाने वाले एकल बचाव क्रम द्वारा हेपेटाइटिस-ए और हेपेटाइटिस-बी दोनों से सुरक्षा प्रदान करता है ।
हेपेटाइटिस-ए और हेपेटाइटिस-बी का संयुक्त टीका दो रूपों मे उपलब्ध है ।
पेडियाट्रिक खुराक : बच्चों और 1 से 15 वर्ष आयु के किशोरों के लिए 0.5 मि.ली. की एक खुराक होती है ।
वयस्क खुराक : 16 वर्ष और अधिक आयु के वयस्कों के लिए 1.0 मि.ली. की खुराक होती है ।
हेपेटाइटिस-बी विश्वव्यापी बीमारी है , जो हेपेटाइटिस-बी वायरस ( एचबीवी ) के कारण होती है ।
एचबीपी मुख्यतः यकृत को प्रभावित करते हैं जिससे जलन होती है
यकृत की कोशिकाएँ नष्ट होती हैं और यकृत का कार्य अक्सर बाधित हो जाता है ।
संक्रमण के परिणाम भिन्न-भिन्न और अनापेक्षित होते हैं ।
संक्रमण के परिणाम मरीज की आयु और प्रतिकारक क्षमता की स्थिति पर आधारित होते हैं ।
हेपेटाइटिस-बी अत्यंत संक्रामक है , इसे एड्स पैदा करने वाले एच.आई.वी. की तुलना में 100 गुना ज्यादा संक्रामक माना जाता है ।
हैपेटाइटिस-बी पूरे वर्ष भर में प्रतिदिन एड्स की तुलना में ज्यादा लोगों को मौत का शिकार बनाता है ।
हैपेटाइटिस-बी रोग के प्रसार में रक्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन हैं लेकिन ये अन्य शारीरिक द्रव्यों के माध्यम से भी फैल सकता है जिसमें शामिल हैं वीर्य , योनिमार्ग से स्त्राव और लार ।
एचबीवी तीन माध्यमों से फैलता है , माँ से बच्चे में , जन्म पर और व्यक्ति से व्यक्ति में ।
हैपेटाइटिस-बी बीमारी तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाले क्रानिक कैरियर स्टेट या लीवर कैंसर से बचाव का सर्वाधिक प्रभावी और सुविधाजनक उपाय है , टीकाकरण ।
टीकाकरण के बाद सुरक्षात्मक प्रतिजैविक प्रतिक्रया विकसित कर चुके व्यक्तियों को तीव्र और पुराने संक्रमण तथा साथ ही बीमारियों से संपूर्ण सुरक्षा मिल सकती है ।
हैपेटाइटिस-बी टीके के व्यापक उपयोग से हैपेटाइटिस-बी संक्रमण और दीर्घकालीन हैपेटाइटिस-बी से उभरे लीवर कैंसर में उल्लेखनीय रूप से कमी दिखी है ।
पीतज्वर को पीला जैक , काली उल्टी , नीग्रो की उल्टी या अमेरिकन प्लेग भी कहते हैं ।
संयुक्त टीका बच्चों और वयस्कों के लिए बना है ।
आपरेशन के बाद हर्निया दुबारा न\ RP_NEG हो इस के लिए क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए ?
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारतवर्ष में बढ़ती जनसंख्या की विकराल समस्या रही है ।
वर्ष 1952 में राष्ट्रीय स्तर पर परिवार कल्याण कार्यक्रम चलाया गया ।
वर्ष 1994 में केरो ( मिश्र ) में एक अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन में जनसंख्या एवं विकास के विषय में यह सुझाया गया कि प्रजनन स्वास्थ्य सुरक्षा को परिवार कल्याण के साथ सुधार कर जोड़ना मानवहित एवं विकास हेतु आवश्यक होगा ।
समग्र प्रजनन स्वास्थ्य सुरक्षा को एक ही तत्व के रूप में परिवार नियोजन सेवाओं में रखा जाय ।
अतः प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम अवधारणा का जन्म हुआ ।
भारत वर्ष प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम वर्ष 1997 से चलाया जा रहा है ।
उत्तराखण्ड में यह कार्यक्रम राज्य के गठन से ही चलाया जा रहा है ।
मूल राज्य उत्तर-प्रदेश की तुलना में उत्तराखण्ड में प्रजनन दर का स्तर सदैव कम रहा है ।
वर्ष 1951 - 1956 की अवधि में इस राज्य का अशोधित जन्म दर 48 था जो कि घटते हुये वर्ष 1976 - 1981 की अवधि में 35 हो गया तथा वर्ष 1994 - 2001 के दौरान यह दर और भी कम होकर मात्र 26 रह गया ।
जिलों में यह दर सबसे कम पौड़ी में जब कि सबसे अधिक हरिद्वार में है ।
सकल प्रजनन दर ( किसी महिला द्वारा अपने प्रजनन जीवन काल में जन्में गए शिशुओं की संख्या ) जो कि 1971-76 की अवधि के लिए 5 से अधिक अनुमानित थी , निरन्तर घट रही है तथा वर्ष 2001 में यह संख्या 3.3 थी ।
अन्तर जनपदीय विभिन्नताएँ भी इस अवधि में कम हुई हैं ।
अशोधित जन्मदर तथा सकल प्रजनन दर नगरीय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न रही है ।
पुत्र की चाहत ही प्रबल है जो कि राज्य के भावी प्रजनन स्तर को प्रभावित करेगा ।
सामान्य रूप से मैदानी क्षेत्रों की तुलना में पर्वतीय क्षेत्रों में जन्मदर कम है ।
लगभग एक चौथाई महिलाएँ पहले जन्मे बच्चे के बाद 24 महिनों के भीतर दूसरे बच्चे को जन्म देती हैं ।
आधे से कुछ कम ( 46 प्रतिशत ) माताएँ 3 से अधिक बच्चों को जन्म देती हैं ।
लगभग 42 प्रतिशत जन्म गम्भीर खतरे वाली श्रेणी में आते हैं ।
विशेष कर उत्तराखण्ड के सम्बन्ध में मृत्यु दर सम्बन्धी सूचनाओं के अभाव से मृत्यु दर में कमी की प्रवृत्ति एवं तरीकों पर टिप्पणी करना कठिन है ।
सैम्पल पंजीकरण प्रणाली , ( एस.आर.एस ) के अनुमानों के अनुसार वर्ष 2000 के दौरान उत्तराखण्ड की अशोधित मृत्यु दर प्रत्येक 1000 की जनसंख्या पर 7 अनुमानित थी जो कि राष्ट्रीय औसत 9 से कम है ।
राज्य की शिशु मृत्यु दर वर्ष 2000 में प्रत्येक 1000 जीवित जन्म पर 50 थी , जो कि राष्ट्रीय दर ( 68 1000 ) से बहुत कम है ।
शिशु मृत्यु की कुल संख्या में से लगभग दो तिहाई मृत्यु नवजात शिशु काल में ही हो जाती है ।
उत्तराखण्ड में बाल मृत्यु दर प्रत्येक 1000 जीवित जन्म पर 19 है ।
वर्तमान में राज्य की मातृ मृत्यु दर सम्बंधी आंकड़े उपलब्ध नहीं है ।
राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुये यह कहा जा सकता है कि यहाँ पर मातृ मृत्यु दर काफी अधिक होगी ।
आधुनिकीकरण तथा नगरीयकरण के कारण जीवन शैली में हुए परिवर्तनों से असंचारी रोग भी मृत्यु का एक प्रमुख कारण बन रहे हैं ।
`` प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम का उद्देश्य माताओं की मृत्यु दर एवं बच्चों की मृत्यु दर में कमी लाना है । ``
प्रजनन एवं बाल स्थास्थ कार्यक्रम के सम्बन्ध में पुरूषों की भागीदारी को विशेष महत्व देने , पुरूष एवं महिला को सुरक्षित एवं असरदार गर्भनिरोधक की विधियों का पूर्ण ज्ञान पहुँचाने , गर्भवती महिला को गर्भावस्था तथा प्रसव के दौरान चिकित्सकीय सुविधायें उपलब्ध कराने तथा दम्पति को स्वस्थ नवजात शिशु प्राप्त करने हेतु यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है ।
स्वास्थ्य कार्यक्रमों का लक्ष्य दम्पति सुरक्षा दर को वर्ष 2006 तक 49.0 प्रतिशत , वर्ष 2010 तक 55.0 एवं 2010 तक 95 प्रतिशत तक बढ़ाना है ।
सुरक्षा प्रसव की दर को वर्ष 2006 तक 60 प्रतिशत , वर्ष 2010 तक 80 प्रतिशत तथा संस्थागत प्रसवों की संख्या को अधिक से अधिक बढ़ाना है ।
प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत मुख्य कार्य ।
कार्यक्रम के अन्तर्गत चलाये जा रहे मुख्य कार्य निम्न प्रकार हैं ।
आर.सी.एच. शिविरों का आयोजन ।
आर.सी.एच. आउटरीय सेशनों का आयोजन ।
संविदा पर महिला स्वास्थ्य कार्यकर्मियों की तैनाती ।
बृहत निर्माण कार्य एव स्वास्थ्य इकाईयों की मरम्मत नवीनीकरण ।
नगरीय प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम ।
संविदा पर अतरिक्त ए.एन.एम. की तैनाती ।
असेवित एवं ग्रामीण क्षेत्रो में 258 अतिरिक्त ए.एन.एम. की संविदा के आधार पर तैनाती , माताओं एवं बच्चों के प्रतिरक्षण एवं गर्भ निरोधकों के ग्राह्यता को बढ़ाने हेतु की गयी है ।
प्रा.स्वा.केन्द्रों एवं सा.स्वा.केन्द्रों पर रात्रि 8 बजे से प्रात: 7 बजे तक सुरक्षित प्रसव उपलब्ध कराने के उद्देश्य से भारत सरकार के दिशा-निदेशानुसार 39 प्रा.स्वा.केन्द्रों एवं 26 सा.स्वा. केन्द्रों पर सेवा उपलब्ध करायी जा रही हैं ।
गर्भवती माताओं को सुरक्षित प्रसव की सेवा उपलब्ध कराने हेतु वर्ष 2001-2002 एवं वर्ष 2002-03 में उत्तराखण्ड में 900 अप्रशिक्षित दाईयों को प्रशिक्षित किया गया ।
वर्ष 2004-2005 में 560 अप्रशिक्षित दाईयों को प्रशिक्षित किया गया ।
ई.ए.जी. कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत सरकार से 5 सुरक्षित मातृत्व परामर्शदाता ( महिला चिकित्साधिकारी ) को संविदा के आधार पर तैनात किये जाने की स्वीकृति हुई थी ।
तैनाती हेतु समाचार पत्रों में विज्ञापन के पश्चात 3 महिला चिकित्साधिकारियों का चयन किया गया था जिसमें से मात्र 1 महिला चिकित्साधिकारी ने सा.स्वा.केन्द्र अगस्तमुनि जनपद रूदप्रयाग में अपनी योगदान सूचना दी है ।
राज्य में प्रत्येक ग्रामसभा स्तर पर महिला स्वास्थ्य कार्यकर्मी द्वारा माह के एक निश्चित दिवस ( शानिवार ) को आउटरीच सत्र का आयोजन कर , महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल एवं टीकाकरण ग्रामसभा स्तर पर किया जा रहा है ।
भारत सरकार द्वारा उक्त कार्यक्रम को माह जुलाई 2004 से समाप्त कर दिया गया है ।
किन्तु राज्य में उपरोक्त कार्यक्रम महिला स्वास्थ्य कार्यकर्मी के सहयोग से चलाया जा रहा है ।
आर.सी.एच. कार्यक्रम के अन्तर्गत राज्य स्तर से औषाधियों का क्रय किया जा रहा है ।
आर.सी.एच. किट भारत सरकार से सीधे जनपदों को उपलब्ध कराये जाते है ।
राज्य स्तर से क्रय किये जाने वाले उपकरणों हेतु राज्य स्तर पर गठित कार्यकारिणी समिति के अनुमोदन के पश्चात मुख्यालय स्तर पर गठित क्रय समिति द्वारा नियमानुसार क्रय किये जाने का प्राविधान है ।
जनसंख्या स्थिरीकरण में पुरूषों की सहभगिता बढ़ाये जाने हेतु एन.एस.वी. ( बिना चीरा बिना टांका ) पद्धति के प्रचार-प्रसार हेतु वर्ष 2003-04 में जनपदों में विशेष कार्य किया गया ।
जनसंख्या स्थिरीकरण स्थायी आरन होर्डिग की स्थापना , वॉल पेंटिंग्स , पंचायती राज सदस्यों का ओरियन्टेशन तथा चिकित्सा विभाग के मेडिकल एवं पैरामेडिकल स्टाफ एवं अन्य मीडिया प्रदर्शन आदि किया गया ।
कुष्ठ रोग एक जीवाणु से उत्पन्न होने वाला छूत का रोग है ।
इस जीवाणु का नाम माइकोबेक्टीरियम लैप्री है ।
माइकोबेक्टीरियम लैप्री मुख्यतया तंत्रिका तंत्र तथा त्वचा को प्रभावित करता है ।
कुष्ठ रोग का संक्रमण काल ( इनक्यूवेशन पीरियड ) औसतन तीन वर्ष है और यह रोग बहुत धीरे - धीरे बढ़ता है ।
कुष्ठ रोग किसी भी उम्र तथा लिंग के व्यक्तियों को समान रूप से प्रभावित कर सकता है ।
एम.डी.टी. औषधि कुष्ठ रोग जीवाणु को समाप्त कर रोगी को पूर्णतया रोगमुक्त कर देती है तथा समाज में रोग फैलने से बचाती है ।
समस्त कुष्ठ रोगी संक्रामक नहीं होते ।
अधिकांश रोगी असंक्रामक होते हैं जो रोग नहीं फैला सकते , मात्र 15 से 20 प्रतिशत रोगी ही संक्रामक होते हैं ।
कुष्ठ रोग अन्य रोगों जैसे खसरा , टी.बी. आदि की तुलना में बहुत ही कम संक्रामक है ।
लगभग 95 प्रतिशत लोगों में कुष्ठ रोग से लड़ने की प्रतिरोधात्मक क्षमता होती है जिससे उन्हें यह रोग नहीं हो सकता ।
कुष्ठ रोग के मुख्य लक्षण एवं पहचान निम्नलिखित हैं ।
शरीर में चमड़ी पर , चमड़ी के रंग से फीका - पीला या लाल सा बदरंग दाग-घब्बा , जिसमें सुन्नपन हो , अर्थात न दर्द हो , न जलन हो , न खुजली एवं न चुभन हो और न ही ठंडा व गरम का अनुभव हो ।
चमड़ी पर तैलीय चमक हो ।
चमड़ी पर , भौहों पर , ठोड़ी पर , कानों पर सूजन , मोटापन या गाँठ हो ।
हर्निया के आपरेशन के बाद तीन महीनों तक कोई मेहनत - मशक्कत का काम न करें ।
हाथ पैरों में झंझनाहट , सुन्नपन व सूखापन हो ।
हाथ पैरों की अंगुलियों में विकृति आ रही हो ।
कुष्ठ रोग की शुरूआत व प्रसार ।
प्रायः कुष्ठ रोग की शुरूआत शरीर पर चकत्ते या दाग से हो सकती है जो सुन्न होता है ।
यदि इस प्राथमिक अवस्था में ही इसका इलाज करा लिया जाये तो रोग पूरी तरह से ठीक हो जाता है और उसमें वह विकलांगता पैदा नहीं होने पाती जो सामाजिक बहिष्कार का मुख्य कारण है ।
कुष्ट रोग की सही जानकारी न होने अथवा लापरवाही के कारण इलाज न कराया जाये तो रोग बढ़ता ही जाता है ।
अंगुलियाँ टेढ़ी होने लगती हैं , हाथ पैरों में घाव हो जाते हैं व चेहरा भद्दा लगने लगता है ।
ज्यादातर लोग इसी अवस्था में चिकित्सक की सलाह लेने पहुँचते हैं ।
कुष्ठ रोगी के सुन्न एवं असंवेदनशील अंगों की देखभाल न होने के फलस्वरूप घाव एवं अल्सर बन जाते हैं ।
घाव एवं अल्सर की अवस्था में भी रोगी का पूर्ण इलाज संभव है परन्तु इलाज में देरी हो जाने के कारण जो विकलांगता और विरूपता आ चुकी है उसे दवा के जरिये दूर करके फिर पहले जैसी स्थिति नहीं लाई जा सकती ।
हाँ , विकलांग व्यक्ति का मामूली ऑपरेशन करके हाथ पैरों को इस प्रकार बनाया जा सकता है कि रोगी फिर से काम धन्धे कर सके और अपनी जीविका चला सके ।
मलेरिया रोगाणु मादा एनाफिलीज मच्छर के काटने से फैलता है ।
मादा एनाफिलीज मच्छर साफ पानी में पैदा होते हैं और रात में काटते हैं ।
कंपकपी एवं जाड़े के साथ प्रायः तीसरे दिन बुखार आता है ।
घर के बर्तनों में एकत्रित पानी को सप्ताह में\ PSP एक बार अवश्य बदलें ।
सोते समय मच्छरदानी प्रयोग करें अथवा सरसों नीम का तेल शरीर के खुले अंगों पर लगायें ।
घर की खिड़कियों दरवाजों रोशनदानों पर महीन जाली लगवायें ।
अपने आस-पास पानी इकट्ठा न होने दें ।
यदि ऐसा संभव न हो तो इकट्ठे पानी पर जले मोबिल डीजल मिट्टी के तेल की कुछ मात्रा डालें ।
विकासशील देशों में मीजल्स की बीमारी काफी गंभीर रूप ले सकती है , क्योंकि इसके कारण होने वाली मृत्यु दर 10 प्रतिशत से अधिक है ।
इसलिये जितनी जल्दी हो सके बच्चों को इसका टीका लगवाने की सिफारिश की जाती है ।
माँ के एंटीबॉडी स्तर और टीके की खुराक के अलावा , बीमारी की घटनाओं को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बच्चों को नौ महीने की उम्र मे मीजल्स का टीका लगवाने की सिफारिश की जाती है ।
मीजल्स के संकेतों एवं लक्षणों मे शामिल हैं - बुखार , सर्दी के सामान्य लक्षण , कंजेक्टीवाइटिस , खाँसी , मुँह के अंदर दाग और त्वचा पर निकलने वाले लाल दानें ।
इसके अलावा , संक्रमण के दौरान दस्त , पेट दर्द और भूख कम हो जाने जैसे लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं ।
मीजल्स के लक्षण , बच्चों की तुलना में किशोरों में अधिक गंभीर रूप में दिखाई देते हैं , इसकी उद्भवन अवधि ( इनक्यूबेशन अवधि ) लगभग 10 से 12 दिन होती है और इस अवधि के दौरान बाहर से इस बीमारी के लगभग कोई लक्षण दिखाई नहीं देते ।
10 से 12 दिन की अवधि के दौरान वायरस के कारण सबसे पहले उपरी श्वासोच्छवास मार्ग मे स्थानीय ( लोकल ) संक्रमण हो जाता है और फिर यह संक्रमण शरीर के अन्य हिस्सों मे भी फैल जाता है ।
इसके बाद यह वायरस पूरे रक्तप्रवाह में फैलकर प्राइमरी बीमारी का रूप ले लेता है ।
वैक्टीरिया वायरस के प्रवेश और बीमारी के आरंभ के बीच की अवधि ।
मम्पस् ( गलसुआ ) या संक्रामक पेराटाइटिस एक तरह की गंभीर संक्रामक बीमारी है , जिसमें जबड़े के आस-पास मौजूद एक या दोनों लार ग्रंथियों मे सूजन आ जाती है और दर्द होने लगता है ।
लार ग्रंथियाँ कान के सामने की तरफ गालों के भीतर और क्रमशः मुँह की निचली सतह पर मौजूद होती हैं ।
इसके अलावा , मम्पस बीमारी , के कारण मुँह भी सूखने लगता है ।
रूबेला या जर्मन मीजल्स भी अत्यधिक छूत की बीमारी है , जो बच्चों , किशोरों और युवाओं को होती है ।
जन्म के तुरंत बाद होने वाली रूबेला बीमारी सामान्यतः नाममात्र के लिए और केवल कुछ समय के लिए होती है ।
रूबेला बीमारी के सबसे स्पष्ट लक्षण हल्के से लाल दाने होते हैं इस बीमारी की सबसे मुख्य समस्या यह है कि इसके वायरस बहुत ही तेजी से बढ़ते हैं जिसके परिणामस्वरूप बच्चों मे जन्म दोष पैदा हो जाता है ।
लगभग 25 से 50 प्रतिशत रूबेला संक्रमण का पता नहीं चल पाता और जब इसके लक्षण पैदा होते है हैं तो वे बहुत ही हल्के होते हैं और साफ तौर पर नजर आते हैं ।
जब वयस्कों मे रूबेला बीमारी होती है तो दाने निकलने से लगभग दो दिन पहले इन्हें बुखार आता है और इनकी भूख कम हो जाती है ।
मीजल्स मम्पस और रूबेला के लाइव एटयुनुएटेड टीके एक मिले-जुले सिंगल टीके के रूप मे होते हैं , जिन्हे एमएमआर टीका कहते हैं ।
एमएमआर टीके ज्यादा प्रभावकारी होते हैं क्योंकि इस सिंगल वायरस टीके में अलग-अलग संबंधित स्टेन नस्ल होती है ।
एमएमआर टीकों का उपयोग अत्यधिक असरदार साबित हुआ है ।
एमएमआर द्वारा मिलने वाली रोगप्रतिकारक शक्ति अधिक समय तक और लगभग जीवन भर बनी रहती है ।
पेट की पेशियाँ चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए आपरेशन हुए 3 महीने बीत जाने पर व्यायाम शुरू कर दें ।
हालांकि मीजल्स के लिए उठाए गये पहले कदम का उद्देश्य प्राथमिक टीकाकरण कार्यक्रम का कार्यान्वयन है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि मीजल्स या खसरा के पूरी तरह उन्मूलन के लिए इसकी एक सिंगल खुराक पर्याप्त नहीं है ।
इसलिए अब डब्लू.एच.ओ. और यूनिसेफ दोनों ही के द्वारा संयुक्त रूप से यह सिफारिश की जाती है कि 9 महीने में इसकी पहली खुराक देने के अलावा ऐसे बच्चों को मीजल्स से सुरक्षित बनाने के लिये दूसरा टीका लगवाना बहुत आवश्यक है ।
दिमाग या मस्तिष्क मे होने वाले अव्यवस्था , जो सोचने , समझने , कार्य करने या अनुभव करने की क्षमता को प्रभावित करती है ।
दिमाग की ऐसी व्यवस्था को मानसिक रोग कहते है ।
यह अनुमान किया जाता है कि जनंसख्या का 1-2 प्रतिशत लोग गम्भीर मानसिक रोग से पीड़ित होते हैं और लगभग 5 प्रतिशत सामान्य मानसिक रोग से पीड़ित होते हैं ।
यह अनुमान लगाया गया है कि अस्पताल में आने वाले वाह्य रोगियों में से 25 प्रतिशत मानसिक रूप से बीमार होते है हैं ।
मानसिक रोग कई तरह से हो सकते हैं जैसे मन्दबुद्धि , मिर्गी , नींद न आना , अत्यधिक नींद आना , सम्भोग एवं सम्भोग की प्रक्रिया में बदलाव , मूड ठीक न होना बदलाव , सिजोफेरनिया , जल्दी भूलना , कहीं खो जाना , व्यक्तित्व मे बदलाव आदि ।
पीतज्वर एक तीव्र विषाणु जनित रोग है
पीतज्वर अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिकी देशों मे एक प्रमुख रोग है ।
इसे पीतज्वर इसलिये कहते है क्योंकि इसके कई रोगियों मे पीलिया के लक्षण नजर आते है ।
किसी कार्य मे ध्यान न लगाना ।
बिना किसी कारण के दुखी रहना ।
बहुत जल्दी , ज्यादातर गुस्सा होना ।
मूड मे जल्दी - जल्दी बदलाव , खुशी से गमगीन रहना व फिर खुश हो जाना ।
बच्चों की छोटी - छोटी बातों से जल्दी परेशान होना ।
अपने आपको हमेशा सही समझना और दूसरो को गलत ।
तम्बाकू , मदिरा , भांग , चरस लेने की इच्छा उत्पन्न होना ।
सम्भोग की इच्छाशक्ति या प्रक्रिया मे तकलीफ होना ।
किसी भी रोगी को मानसिक रोग करार देने से पहले उसकी पूरी मानसिक व्यथा देखी जाती है ( जिसमें वर्तमान तकलीफे , पुरानी एवं नवीन परेशानियाँ , पारिवारिक व उसके आसपास की व्यथा देखी जा सकती है ) फिर उसकी शारीरिक व मानसिक जाँच की जाती है ।
जरूरत पड़ने पर लैब जाँच में ई.सी.जी. , आर.एफ.टी. , एल.एफ.टी. , ई.ई.जी. और सी.टी. स्कैन , डाइग्नोस्टिक स्टेण्डाइजड इन्टरवेन्स व साइक्लॉजिकल टेस्ट किया जाता है ।
मानसिक रोग का इलाज निम्नलिखित पद्धतियों के द्वारा कराया जा सकता है ।
रोगी व उसके परिवार को सुनना व उसके मानसिक स्वास्थ्य के बारे मे जानकारी उपलब्ध कराना ।
रोगी को अपने भावनात्मक रूप से बदलाव के लिऐ प्रेरित करना ।
प्रत्येक जनपद में मानसिक स्वास्थ्य के लिये प्रचार - प्रसार करना , प्रेस , टी.वी. रेडियो , स्वास्थ्य मेले के द्वारा , पोस्टर , बैनर्स , आदि के द्वारा लोगों को जागरूक करना ।
सामाजिक वातावरण को बेहतर बनाना , समाज के लोगों मे सामाजिक संबद्धता व सहभागिता को बढ़ावा देना ।
मानसिक , सामजिक व व्यक्तित्व बदलाव का शुरू से ही पता लगाना ।
स्कूल , कॉलेजों , सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों मे जाँच कराना ।
भावनात्मक व मानसिक रोग का उपचार करना , परिवार को कठिन परिस्थितियों से गुजरने की क्षमता प्रदान करना ।
रोगी के सामाजिक व व्यक्ति विशेष की परेशानी को हल करना ।
मानसिक रोगी को ठीक करना और परिवार व समाज की कठिनाई को कम करना ।
किसी मानसिक रोगी को दुबारा रोगी होने से बचाना ।
राज्य में मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के अन्तर्गत निम्न कार्यवाही की जा रही है ।
राज्य में 4 अप्रैल 2002 से राज्य मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण ( State Mental Health Authority ) का गठन किया जा चुका है ।
मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण कार्यक्रम के अन्तर्गत देहरादून में 30 शैय्या का राज्य मेन्टल अस्पताल बनाया जा रहा है ।
जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के अन्तर्गत उत्तराखण्ड के दो जनपदों का चयन किया गया है
गढ़वाल मण्डल में देहरादून व कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल ।
जिसके लिये भारत सरकार को 184.30 लाख का प्रस्ताव स्वीकृति हेतु भेजा गया है ।
देहरादून व नैनीताल दोनों जनपदों में यह कार्यक्रम लागू किया जायेगा ।
भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना को दिनांक 14.9.2001 से समाज कल्याण विभाग से स्वास्थ्य कल्याण विभाग को हस्तान्तरित कर दिया गया है ।
हस्तान्तरण की प्रक्रिया अब पूर्ण हो चुकी है ।
उत्तराखण्ड राज्य में स्वास्थ्य विभाग द्वारा राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना का कार्यान्वयन किया जा रहा है ।
राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना के अन्तर्गत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन ( बी.पी.एल. ) करने वाली 19 वर्ष से ऊपर की महिलाओं को प्रथम जीवित प्रसव पर उचित पोषण हेतु प्रति प्रसव 500 रू. की सहायता दी जाती है ।
राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना के अन्तर्गत वर्ष 2002-2003 तथा 2003-2004 में भारत सरकार से प्राप्त धनराशि व लाभार्थियों का विवरण निम्नवत है ।
मातृ एवं शिशु कल्याण सेवाओं के अन्तर्गत उत्तराखण्ड राज्य में निम्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं ।
उत्तराखण्ड में आधे से कुछ कम ( 44 प्रतिशत ) गर्भवती महिलाएँ मात्र एक बार प्रसव पूर्व परीक्षण करा पाती हैं , जब कि राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रतिशत 65 है ।
ऐसी गर्भवती महिलाएँ जो कम से कम तीन बार प्रसव पूर्व परीक्षण कराती हैं , उनका प्रतिशत केवल 18 है ।
प्रसव पूर्व सेवाओं का लाभ उठाने वाली महिलाओं की संख्या में शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों की दृष्टि से व्यापक अन्तर है ।
शहरी क्षेत्रों में तीन चौथाई से अधिक ( 78 प्रतिशत ) गर्भवती महिलाएँ कम से कम एक प्रसव पूर्व परीक्षण कराती हैं जब कि एक तिहाई से कुछ अधिक , ग्रामीण गर्भवती महिलाएँ ऐसा कराती हैं ।
एक तिहाई से कुछ अधिक ( 39 प्रतिशत ) गर्भवती महिलाएँ आयरन फोलिक एसिड गोलियों की पूरक खुराकें लेती हैं ।
टेटनेस टाक्साइड इन्जेंक्शन के मामले में 54 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं को टी.टी. के इन्जेक्शन की दो या दो से अधिक खुराके प्राप्त हैं , हालांकि इन महिलओं की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में 49 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्रों में 77 प्रतिशत है ।
सामान्यतः अशिक्षित माताओं एवं निम्न जीवन स्तर वाले परिवारों में प्रसव पूर्व सेवाओं का प्रचलन बहुत ही कम है , इस सेवा के अंतर्गत निम्न कार्य मुख्य रूप से किये जाते हैं -
गर्भवती माताओं की चिन्हित करना ।
रक्त अल्पता हेतु बचाव के लिए गोलियों का वितरण तथा जटिल केसों के उचित केन्द्रों का सन्दर्भण ।
उत्तराखण्ड में मात्र 21 प्रतिशत संस्थागत प्रसव होते हैं ।
नगरों में यह प्रतिशत 42 है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 82 प्रतिशत से अधिक प्रसव घरों में होते हैं और इनमें से आधे से अधिक प्रसव दाईयों की सहायता से सम्पन्न होते हैं ।
शहरी क्षेत्रों में भी आधे से अधिक ( 56 प्रतिशत ) प्रसव घरों में होते हैं ।
उत्तराखण्ड में एक चौथाई प्रसव चिकित्सकों तथा लगभग 10 प्रतिशत प्रसव प्रशिक्षित परिचारिकाओं , सहायक स्वास्थ्य परिचारिकाओं एवं दाईयों की सहायता से सम्पन्न होते हैं ।
चिकित्सा संस्था से परे सम्पन्न होने वाले प्रसवों में सात में से मात्र एक प्रसव ( 14 प्रतिशत ) को दो माह के भीतर प्रसवोत्तर परीक्षण से लाभान्वित किया जाता है ।
प्रसवोत्तर परीक्षण सेवा के अंतर्गत सुरक्षित प्रसव एवं जटिल केसों का सन्दर्भण मुख्य रूप से किया जाता है ।
माता एवं नवजात शिशु की देखभाल , जटिल केसों का सन्दर्भण , शिशुओं का टीकारण , बच्चों को अन्धता से बचाव हेतु विटामिन-ए के घोल का वितरण , सीमित परिवार हेतु परिवार नियोजन की उचित सलाह एवं सेवाएँ तथा गर्भ सामपन हेतु उचित सलाह एवं सेवाएँ ।
मातृ सेवाओं के अन्तर्गत वर्ष 2001-2002 , वर्ष 2002-2003 तथा वर्ष 2003-2004 तक की उपलब्धियों का तुलनात्मक विवरण निम्न तालिका में दर्शाया गया है ।
पेलियोमायलीटिस नामक बीमारी एक अत्यधिक संक्रामक वायरस के कारण होती है , जो केवल मनुष्यों पर ही हमला करता है ।
यह संक्रामक वायरस आमतौर पर पानी या अन्य माध्यम के जरिये संक्रमित व्यक्ति के सम्पर्क में आने से फैलता है ।
हालाँकि मुँह से मुँह द्वारा भी यह बीमारी फैल सकती है ।
पोलियो बीमारी खासतौर पर छोटे बच्चों पर हमला करती है ।
पोलियो के 80 प्रतिशत से 90 प्रतिशत मामले अक्सर 3 वर्ष से कम उम्र के बच्चों मे देखे जाते हैं ।
पोलियो अत्यधिक छूत की बीमारी है ।
परिवार में जब तक पोलियो ग्रसित एक सदस्य का पता चलता है , तब तक पोलियो का संक्रमण अन्य सदस्यों में भी होने की संभावना पैदा हो जाती है , क्योंकि यह इन्फैक्शन तेजी से फैलता है , ये वायरस भीड़-भाड़ वाली जगह और स्वच्छ शौच सुविधाओं के कारण ज्यादा तेजी से फैलता है ।
ओरल पोलियोवायरस वैक्सीन ( ओ.पी.वी. ) का सबसे पहली बार उपयोग तत्कालीन सोवियत यूनियन में किया गया ।
इस देश में विकसित तकनीक के परिणामस्वरूप , अन्य देशों में पोलियो के नियंत्रण या इसे दूर करने के नये - नये तरीके खोजे गए ।
ओ.पी.वी. की जबरदस्त सफलता का सबसे ज्वलंत प्रमाण दुनिया भर में चलाये जा रहे पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम हैं ।
पोलियो उन्मूलन के लिए भारत में चलाया गया पल्स पोलियो कार्यक्रम भी बहुत अधिक सफल साबित हुआ है ।
1940 से ही दुनिया भर में मिले - जुले ( कम्बाइन्ड ) डी.टी.पी. टीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है , और इनकी सहायता से क्लिनिकल पर्टयुसिस को कम करने में काफी सफलता भी मिली है ।
डी.टी.पी. टीकों की 3 खुराक बच्चों को देकर , घटसर्प , टेटनेस और पर्टयुसिस जैसी बीमारी से इन्हें सुरक्षित बनाया जा सकता है ।
घटसर्प ( डिप्थीरिया ) एक ऐसा संक्रमण है जो गले , मुँह और नाक को प्रभावित करता है ।
घटसर्प एक अत्यधिक संक्रामक बीमारी है , आसानी से होने वाली , लेकिन इसके टीके विकसित होने के बाद यह बहुत कम पायी जाती है ।
यौन जनित रोग संक्रमित रोग हैं , यह रोग संक्रमित रोगी से यौन सहवास के दौरान अपने यौन साथी में संचारित हो जाता है ।
यही कारण है कि इन रोगों को यौन जनित रोग कहा जाता है , इनका संक्रमण आसान है ।
यौन जनित रोगों का संक्रमण आसान है ।
यौन जनित रोग गंभीर एवं पीड़ायुक्त हैं ।
यौन जनित रोगों के समूह की सबसे अधिक पायी जाने वाली बीमारियाँ हैं - सुजाक , गनोरिया , हरपीज क्लेमाइडिया ।
बहुत सी यौन संक्रमित बीमारियाँ प्रारम्भ में कुछ लक्षण दर्शाती हैं , यह लक्षण बिना किसी उपचार के समाप्त हो जाते हैं ।
कुछ यौन बीमारियाँ विशेषतः महिलाओं में या तो बहुत साधारण लक्षण अथवा कोई लक्षण उत्पन्न नहीं करती हैं ।
यौन रोगों से संक्रमित व्यक्ति देखने में बिल्कुल स्वस्थ्य लगता है , किन्तु वह अपने यौन साथी अथवा बिना जन्में बच्चों को संक्रमित कर सकता है ।
योनि में असामान्य स्त्राव अथवा दुर्गन्ध उदर के निचले भाग में दर्द ( नाभि तथा जनन अंगों के बीच ) ।
योनि के आस-पास जलन अथवा योनि की गहराई में दर्द होना पुरूष और महिला दोनों में लक्षण ।
जनन अंगों के आस-पास घाव , सूजन अथवा मुँह में दाने तथा छाले , पेशाब करने अथवा मल त्याग के समय मूत्रनली में जलन के साथ दर्द होना , गले मे लाली अथवा सूजन होना ।
बुखार सर्दी , बदन दर्द जैसे फ्लू में जनन अंग के आस-पास की सूजन ।
यदि यौन संक्रमित रोगों का उपयुक्त उपचार न किया गया तो उनमें जटिलताएँ उत्पन्न हो जाती हैं ।
जन्मजात उपदंश ( सिफिलिस ) के कारण बच्चे का मृत जन्म ।
अविकसित शिशुओं का जन्म भी यौन संक्रमित रोगों की वजह से हो सकता है ।
सुजाक ( गनोरिया ) संक्रमण के कारण शिशु में अंधापन ।
आँख की ऊपरी झिल्ली ( कंजक्टाइवा ) में सूजन ।
संक्रमित यौन व्यवहार यौन जनित रोगों से बचाव का सबसे अच्छा तरीका है ।
नीचे दिये गये निर्देश यौन जनित रोगों के बचाव में सहायक हो सकते हैं ।
उन यौन साथियों के साथ सहवास न करें जिनके जनन अंगों में दाने , लाली , घाव अथवा स्त्राव हो ।
असामान्य यौन संबंधों से दूर रहें ।
यौन सहवास के तुरन्त बाद जनन अंगों को साफ पानी साबुन से धोयें ।
यौन जनित रोगों के बचाव से एचआईवी संक्रमण का खतरा भी कम किया जा सकता है ।
जटिलताएँ होने से उपचार अथवा संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिये तुरन्त उपचार किया जाना सदैव ठीक रहता है ।
याद रहे , सुरक्षित यौन व्यवहार नहीं रखा जा रहा है , तो नियमित जाँच हेतु प्रेरित करें ।
अधिकांश यौन जनित रोग उपयुक्त उपचार से पूरी तरह ठीक हो जाते हैं ।
तपेदिक एक संक्रामक रोग है ।
तपेदिक माइक्रोबैक्टीरियम टयूबरकुलोसिस नामक जीवाणु के संक्रमण से होती है ।
तपेदिक बीमारी एक क्षय रोगी से स्वस्थ व्यक्ति को हवा के माध्यम से फैलती है तथा किसी भी आयु या लिंग को हो सकती है ।
एक क्षय रोगी एक वर्ष में 10-15 व्यक्तियों को संक्रमित कर सकता है ।
क्षय रोग से भारत में प्रतिदिन लगभग 1000 वयस्क मृत्यु को प्राप्त होते हैं जो कि अन्य सभी बीमारी से कुल मरने वालों से बहुत ज्यादा है ।
क्षय रोग शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकता है जैसे - फेफड़ों , हड्डियों , जोड़ों या लसिका ग्रन्थियों के किनारे ।
फेफड़े में यह रोग आमतौर पर पाया जाता है ।
रोग से सबसे अधिक युवाओं की मृत्यु होती है , बजाय अन्य किसी भी संक्रमित बीमार के ।
चूँकि इससे अधिक युवा मरते हैं इसलिए सामाजिक और आर्थिक हानि अधिक होती है ।
क्षय रोग की मात्रा समाज में बहुत अधिक है लोग इस रोग को बतलाने में डरते हैं और जाँच सही नहीं हो पाती है ।
क्षय रोग से बहुत अनाथ होते हैं बजाय किसी अन्य बीमारी के ।
ताजा शोध के अनुसार भारत में हर साल 3 लाख बच्चे इस रोग के कारण स्कूल छोड़ देते हैं ।
दुनिया में सबसे अधिक क्षय रोगी भारत वर्ष में पाये जाते हैं ।
हालांकि इंसिडेट ऑफ प्रिवलेस रेट उपलब्ध नहीं है लेकिन शोध बताते है कि इंसिडेट रेट लगभग 257 प्रति लाख है ।
क्षय रोग से भारत में महिलाएँ सबसे अधिक मरती हैं बजाय किसी अन्य संक्रमित बीमारी के ।
महिलाओं की मृत्यु के सभी कारण मिलाकर भी क्षय रोग से मरने वाली महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है ।
ताजा अध्ययन से पता चला है कि भारत वर्ष में 1 लाख महिलाओं को घर से क्षय रोग की वजह से त्याग दिया जाता है ।
स्वस्थ मनुष्य की अपेक्षा एच.आई.वी. से संक्रमित ( एच.आई.वी. धनात्मक ) मनुष्यों को क्षय रोग होने का खतरा 5 गुना बढ़ जाता है ।
क्षय रोग संक्रमित रोगियों को इलाज डाट्स पद्धति से होना चाहिए ।
3 सप्ताह या इससे अधिक की खाँसी क्षय रोग ( फेफड़ों की टी.बी. ) का मुख्य लक्षण है ।
फेफड़े की टी.बी. का सरल निदान का तरीका है , रोगी के बलगम की तीन बार जाँच ।
रोगी के खाँसने अथवा छींकने से टी.बी. के कीटाणु हवा में ड्रापलेट के रूप में रोगी से बाहर निकालते हैं ।
हवा में निकले टी.बी. के कीटाणु स्वस्थ मनुष्य में साँस द्वारा शरीर में प्रवेश करते हैं तथा स्वस्थ मनुष्य को टी.बी. से संक्रमित कर देते हैं ।
बलगम में क्षय रोग के कीटाणु का परीक्षण कर निदान किया जाता है , आवश्यकता पड़ने पर एक्से-रे का भी उपयोग किया जाता है ।
प्रशिक्षण जाँच केन्द्र की सूची जहाँ कैंसर का प्रशिक्षण कराया जा सकता है ।
क्षय रोग पूर्ण रूप से ठीक किया जा सकता है ।
जबकि रोगी पूर्ण इलाज नियमित रूप से करें ।
क्षय रोग का इलाज है परन्तु थोड़ा स्वस्थ होने पर रोगी इलाज छोड़ देता है ।
क्षय रोग के इलाज में अब डाट्स पद्धति से उपचार किया जाता है ।
डाट्स पद्धति में रोगी को स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं की सीधी देख - रेख में दवा खिलाई जाती है ।
जिसे डाट्स ( डायरेक्टली आबजर्ब्ड ट्रीटमेंट विद सार्ट कोर्स कीमोथेरपी ) कहते हैं ।
जैसा कि नाम से पता चलता है - डायरेक्टली आबजर्ब्ड ट्रीटमेंट विद कोर्स कीमोथेरपी ( डाट्स ) का अर्थ है कि रोगी स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता की उपस्थिति में एन्टी टी.बी. ड्रग्ज का शार्ट कोर्स लेता है ।
टी.बी. के उपचार में दो चरण होते हैं ।
इंटेसिव फेस जो 2-3 मास तक चलता है ।
कान्टिन्युवेशन फेस 4-5 मास तक होती है जो कि उपचार की इस कैटेगरी पर निर्भर करता है जिसे रोगी ले रहा हो ।
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत ये दवाएँ सप्ताह में तीन बार एक - एक दिन छोड़ कर इंटेसिव फेज 2-3 माह तक ली जाती है ।
तदोपरांत बलगम की जाँच की जाती है , जो यदि ऋणात्मक पाया जाए तो रोगी केलेण्डर्ड मल्टी ब्लिस्टर्ड कॉम्बी पैक में सप्ताह में एक बार एन्टी टी.बी. ड्रग्स इश्यू की जाती है ।
याद रखें वीकली पैक से पहली खुराक रोगी को हैल्थ वर्कर के सामने लेनी होती है ।
कान्टिन्युवेशन फेज के दौरान दो मास के बाद बलगम की जाँच की जानी चाहिए तथा उपचार पूरा होने के बाद भी ।
कान्टिन्युवेशन फेज की अवधि में आप रोगी की निगरानी करेगें ।
बीमारी की रोकथाम का सर्वोत्तम तरीका यह है कि यदि सभी बलगम रोगियों को ऋणात्मक कर दिया जाए तो रोगी संक्रमण नहीं कर सकता तथा जिस भी मनुष्य को तीन सप्ताह की ज्यादा की खाँसी हो तो उसे तीन बलगम परीक्षण करवाकर डाट्स लेने के लिए प्रेरित करना ।
पीतज्वर मच्छर द्वारा प्रसारित – वाहित रोग है ।
पीतज्वर को कई महामारियाँ फैलाने का कारण माना जाता है ।
पीतज्वर फलैवीवायराड परिवार के एक अरिबोवायरस से होता है ।
अरिबोवायरस एक ग्राम पॉजिटिव एक सूत्रीय आर.एन.ए विषाणु है ।
मानव मे यह विषाणु भी मलेरिया की भाँति मच्छर की लार से प्रवेश करता है ।
जो मच्छर प्रजातियाँ पीतज्वर फैलाती है हैं वे है एडीस सिम्प्सलोनी , एडिस अफ्रीकंस , तथा एडिस एजेप्टी ।
बच्चों को बी.सी.जी. का टीका लगाने से तपेदिक रोग से बचाया जा सकता है ।
टीका जन्म के बाद जितनी जल्दी सम्भव हो अवश्य लगवाना चाहिए ।
रोगी को उपचार के लिए नजदीक के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र या जिला क्षय रोग केन्द्र को सन्दर्भित करें ।
जिन व्यक्तियों को बलगम के साथ या बिना बलगम के तीन सप्ताह से अधिक खाँसी या बलगम में खून आ रहा हो उन्हे जाँच के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र या जिला क्षय रोग केन्द्र भेज दें ।
क्षय रोगियों का समय - समय पर पता लगाते रहें कि वह प्राथमिक केन्द्र या जिला क्षय रोग केन्द्र पर सलाह उपचार के लिए गए अथवा नहीं ।
स्वास्थ्य कार्यकर्ता ( महिला ) की सहायता से क्षेत्र के सभी शिशुओं की तपेदिक का टीका ( बी.सी.जी. ) अवश्य लगवाएँ ।
लोगों को तपेदिक से रोकथाम और उस पर नियंत्रण पाने कि के विषय में सभी शिक्षा दें ।
औषधि वितरण के लिए राज्य में दो केन्द्रीय औषधि भण्डार बनाए गए हैं देहरादून तथा उधम सिंह नगर ।
जिससे कि दूरस्थ जनपदों में औषधियाँ समय पर उपलब्ध कराई जा सके , यह दवाईयाँ जिले की जनसंख्या के हिसाब से बाँटी जाती हैं ।
औषधियों की आपूर्ति भारत सरकार द्वारा की जाती है ।
`` पुनरीक्षित राष्ट्रीय क्षय नियंत्रण कार्यक्रम को सुचारू रूप से चलाने के भारत सरकार द्वारा 8 जनपदों ( टिहरी , पौड़ी , उत्तरकाशी , चमोली , नैनीताल , पिथौरागढ़ , अल्मोड़ा तथा देहरादून ) में 1 - 1 चौपहिया वाहन उपलब्ध कराये हैं । ``
भारत सरकार द्वारा प्रत्येक उपचार केन्द्रो केन्द्रों पर 1 - 1 दुपहिया वाहन उपलब्ध कराये हैं ।
प्रत्येक माईक्रोस्कोपिक सेंटर पर 1 - 1 बाईनेकुलर माईक्रोस्कोप उपलब्ध कराये हैं ।
5 जनपदों ( हरिद्वार , उधम सिंह नगर , रूद्रप्रयाग , बागेश्वर , तथा चम्पावत ) में राज्य सरकार द्वारा चौपहिया वाहन उपलब्ध कराये हैं ।
टेटनस एक तरह का संक्रमण है , जो ऐसे कीटाणुओं के कारण पैदा होता है , जो धूल , गंदगी और जंग-युक्त धातु में पाए जाते हैं ।
टेटनस के कीटाणु शरीर को लगने वाली सामान्य कटन के जरिए भीतर प्रवेश कर जाते हैं ।
टेटनेस के कीटाणुओं के कारण मांसपेशियाँ अकड़ जाती हैं ।
यदि जबड़ों की मांसपेशियों पर टेटनेस का हमला होता है तो जबड़े अकड़ जाते हैं ( लाकजा ) और मुँह न तो खुलता है न ही बंद होता है ।
आमतौर पर यह बहुत तीव्र होता है किंतु इसके कुछ धीमें मामले तब सामने आते है जब व्यक्ति पहले से किसी फलैवीवायरस से संक्रमित होता है ।
संक्रमण के बाद विषाणु सबसे पहले स्थानीय रूप से प्रजनन कर संख्या बढा लेता है इसके बाद सारे शरीर मे यह लिम्फवाहिनी नलियों से फैल जाता है ।
टेटनेस के कारण श्वास नलिका की मांसपेशियाँ भी अकड़ जाती हैं ।
यह एक तरह के जीवाणु हैं , जो फेफड़ों को बलगम के द्वारा ( एक तरह का चिपचिपा , लसीला पदार्थ ) बंद कर देते हैं , इसके कारण खाँसने पर इतनी जोर की आवाज निकलती है , जैसे कोई कुत्ता भौंक रहा हो ।
पीतज्वर की शुरूआत संक्रमण होने के 3 से 5 दिन बाद अचानक होते होती है |
जीवाणु के कारण शरीर में ऐसे कीटाणु भी पैदा हो सकते हैं , जिनसे निमोनिया और ब्रौंकाइटिस ( फैफडों का संक्रमण ) पैदा होता है ।
टाइफाईड ज्वर एक ऐसी बीमारी है , जो गैस्ट्रोइंटेस्टेनियल ( आंत मार्ग ) में संक्रमण के रूप में शुरू होती है और फिर पूरी बीमारी का रूप ले लेती है ।
टाइफाईड का कारण एक तरह के कीटाणु होते हैं , जिन्हें सालमोनेला टिफी कहते हैं ।
हर मरीज में इसके लक्षण अलग - अलग होते हैं , लेकिन इसके कुछ लक्षण सामान्य लक्षणों में शामिल हैं - मियादी बुखार , सरदर्द , थकान और कमजोरी , व्यवहार में बदलाव और बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में पेट की तकलीफ और कब्ज तथा इसके बाद दस्त ।
जब सालमोनेला टिफी युक्त कोई भी खाद्य पदार्थ या पेय पदार्थ लिया जाता है तो सामान्यतः पेट में मौजूद अम्ल के द्वारा ज्यादातर जैविक घटक निष्कृय हो जाते हैं ।
यदि भारी संख्या मे ये कीटाणु पेट मे में पहुँच जाएँ तो इनमें से कुछ कीटाणु छोटी आंत तक प्रवेश कर जाते हैं ।
टाइफाईड बुखार से बचाव के लिए टीका सबसे प्रभावी और सबसे विश्वसनीय विश्वसनीय उपाय है ।
विविध अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा स्थानीय क्षेत्रों की यात्रा करने वाले व्यक्तियों के लिए टाइफाईड का टीका लगवाने की सिफारिश की जाती है ।
ऐसे इलाकों के स्कूली बच्चों और युवा व वयस्कों को भी यह टीका लगवाने की सिफारिश की जाती है , जिन क्षेत्रों मे इस आयु समूह के व्यक्तियों में टाइफाईड ज्वर एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप मे मौजूद है ।
टाइफाईड ज्वर में एंटीबायोटिक रोधकता युक्त सालमोनेला टिफी नस्ल पाई जाती है ।
ऐसे करें दाँतों की देखरेख ।
पीतज्वर रोग के गंभीर मामलों मे तीव्र ज्वर , सर्दी , त्वचा से रक्त निकलना , तीव्र दिल की धड़कन , सिरदर्द , कमर दर्द तथा बहुमूत्र हो जाता है ।
पीतज्वर के महामारी के रूप मे फैलने से मृत्यु दर 85 % तक चली जाती है ।
पीतज्वर रोग ग्रामीण तथा जंगली इलाकों में तथा शहरी इलाकों मे अलग - अलग तरह से फैलता है ।
नगरों मे ज्यादा आबादी के घनत्व के चलते तथा ज्यादा वाहक मच्छर आबादी होने से प्रभाव बहुत ज्यादा होता है ।
पीतज्वर का कोई वास्तविक उपचार नहीं है ।
ज्यादातर विषाणु जनित रोगों का उपचार होता भी नहीं है केवल सहायक उपचार तथा लक्षणों के आधार पर उपचार होता है ।
ज्वर के रोगी को ढेर सारा आराम , ताजी हवा , तथा ढेर सारा तरल पीने को देना चाहिए ।
पीतज्वर के हैमस्टर माडल में एण्टीवायरल रिबावैरिन का जल्दी उपयोग करने पर इसे एक प्रभावी उपचार माना जाता है ।
रिबावैरिन पीतज्वर के इलाज मे उसी प्रकार प्रभावी होता है जैसे कि यह है पेटाइटिस सी मे प्रभावी सिद्ध होता है ।
ऐतिहासिक रिपोर्ट बताती है कि इस रोग से मृत्यु दर 5.8 % से लेकर 33 % तक रही है |
सी.डी.सी. ने बताया है कि मृत्यु दर 15 से 50 प्रतिशत तक मानी है ।
जबकि डब्ल्यू.एच.ओ ने 2001 मे जारी फैक्ट शीट मे कहा था कि 15 % रोगी एक टोक्सिक या जहरीले चरण मे प्रवेश कर जाते है जिनमें से आधे मर जाते है तथा आधे बच जाते है ।
पीतज्वर का अफ्रीका , अमेरिका , यूरोप तथा कैरिबियन द्वीप समूह के इतिहास मे बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है ।
पीतज्वर संयुक्त राज्य मे सबसे बुरी तरह 1878 में फैला जिससे मिसीसिपी घाटी मे ही 20 हजार की मौत हुई थी ।
प्राकृतिक चिकित्सा ( नेचुरोपैथी naturopathy ) एक चिकित्सा-दर्शन है ।
प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत रोगों का उपचार व स्वास्थ्य-लाभ का आधार है - रोगाणुओं से लड़ने की शरीर की स्वाभाविक शक्ति ।
प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत अनेक पद्धतियाँ हैं ; जैसे - जल चिकित्सा , होमियोपैथी , सूर्य चिकित्सा , अक्यूपंचर , एक्यूप्रेसर , मृदा चिकित्सा आदि ।
प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचलन में विश्व की कई चिकित्सा पद्धतियों का योगदान है ; जैसे भारत का आयुर्वेद तथा यूरोप का ` नेचर क्योर ` ।
प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है , जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना है ।
यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है ।
इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक , विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं ।
प्राकृतिक चिकित्सा जीवन कला तथा विज्ञान में एक संपूर्ण क्रांति है ।RD_PUNC
प्राकृतिक चिकित्सा निर्धन व्यक्तियों एवं गरीब देशों के लिये विशेष रूप से वरदान है ।
त्वचा के किसी भाग के असामान्य अवस्था को चर्म रोग कहते हैं ।
त्वचा शरीर का सबसे बड़ा तंत्र है ।
यह सीधे बाहरी वातावरण के सम्पर्क में होता है ।
इसके अतिरिक्त बहुत से अन्य तन्त्रों या अंगों के रोग ( जैसे बाबासीर ) भी त्वचा के माध्यम से ही अभिव्यक्त होते हैं ।
चिकनगुनिया लम्बें समय तक चलने वाला जोड़ों का रोग है ।
चिकुनगुनिया में जोड़ों मे भारी दर्द होता है ।
चिकुनगुनिया रोग का उग्र चरण तो मात्र 2 से 5 दिन के लिये चलता है किंतु जोडों का दर्द महीनों या हफ्तों तक तो बना ही रहता है ।
चिकनगुनिया विषाणु एक अर्बोविषाणु है जिसे अल्फाविषाणु परिवार का माना जाता है ।
चिकनगुनिया मानव में एडिस मच्छर के काटने से प्रवेश करता है ।
चिकनगुनिया को शरीर मे आने के बाद 2 से 4 दिन का समय फैलने मे लगता है ।
चिकुनगुनिया के रोगियों को लम्बे समय तक जोड़ों की पीड़ा हो सकती जो उनकी उम्र पर निर्भर करती है ।
चिकुनगुनिया रोग मानव - मच्छर - मानव के चक्र मे फैलता है ।
चिकुनगुनिया रोग के विषाणु मुख्य रूप से बन्दर मे पायें जाते है , किंतु मानव सहित अन्य प्रजाति भी इस से प्रभावित हो सकती है ।
चिकुनगुनिया रोग के विरूद्ध बचाव का सबसे प्रभावी तरीका रोग के वाहक मच्छरों के संपर्क मे आने से बचना है ।
चिकुनगुनिया रोग का कोई उपचार नहीं है , ना ही इसके विरूद्ध कोई टीका मिलता है ।
क्लोरोक्वीन चिकुनगुनिया के लक्षणों के विरूद्ध प्रभावी औषधि सिद्ध हो रही है ।
पथरी ( Kidney stones ) मूत्रतंत्र का एक रोग है जिसमें वृक्क ( गुर्दे ) के अन्दर छोटी - छोटी पत्थर जैसी कठोर वस्तुएँ बन जाती हैं ।
सामान्यत: ये पथरियाँ मूत्र के रास्ते शरीर से बाहर निकाल दी जाती हैं ।
किन्तु यदि ये पर्याप्त बड़े हो जायें ( 2 - 3 मिमी. आकार के ) तो ये मूत्र नली में अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं
पथरी आमतौर से 30 से 60 वर्ष के उम्र के लोगों में पाई जाती है ।
स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में पथरी चार गुना अधिक पाई जाती है ।
बच्चों और वृद्धों में मूत्राशय की पथरी ज्यादा बनती है , जबकि वयस्कों में अधिकतर गुर्दों और मूत्रवाहक नली में पथरी बन जाती है ।
सबसे दु:खद बात यह है कि पथरी के कुछ प्रतिशत रोगी ही इसका इलाज करवाते हैं ।
जिन मरीजों को डायबिटीज की बीमारी है उनको गुर्दे की बीमारी होने की काफी संभावनाएँ रहती हैं ।
अगर किसी मरीज को रक्तचाप की बीमारी है तो उसे नियमित दवा से रक्तचाप को नियंत्रण करने पर ध्यान देना चाहिए ।
क्योंकि अगर रक्तचाप बढ़ता है , तो भी गुर्दे खराब हो सकते हैं ।
गुर्दे की पथरी की अवस्था में दर्द की स्थिति -
पथरी में पीठ के निचले हिस्से में अथवा पेट के निचले भाग में अचानक तेज दर्द होता है जो पेट व जाँघ के संधि क्षेत्र तक जाता है ।
पथरी का दर्द कुछ मिनटो या घंटो तक बना रहता है तथा बीच - बीच में आराम मिलता है ।
दर्द फैल सकता है या बाजू , श्रोणि , उरू मूल , गुप्तांगो तक बढ़ सकता है
दर्द के साथ जी मिचलाने तथा उल्टी होने की शिकायत भी हो सकती है ।
यदि मूत्र संबंधी प्रणाली के किसी भाग में संक्रमण है तो इसके लक्षणों में बुखार , कंपकंपी , पसीना आना , पेशाब आने के साथ-साथ दर्द होना आदि भी शामिल हो सकते हैं ।
मूत्र में रक्त भी आ सकता है ।
गुर्दे की पथरी के ज्यादातर रोगी पीठ से पेट की तरफ आते भयंकर दर्द की शिकायत करते हैं ।
यह दर्द रह - रह कर उठता है और कुछ मिनटों से कई घंटो तक बना रहता है इसे ” रीलन क्रोनिन ” कहते हैं ।
पथरी रोग का प्रमुख लक्षण है कि इसमें मूत्रवाहक नली की पथरी में दर्द पीठ के निचले हिस्से से उठकर जाँघों की ओर जाता है ।
संपूर्ण चिकित्सा जाँच , एक्सरे-सोनोग्राफी , डाई-इंजेक्शन अथवा अल्ट्रासाउंड परीक्षणों से गुर्दे की पथरियों का रोग-निदान किया जाता है ।
पथरी से बचाव के कुछ उपाय -
पर्याप्त जल पीयें ताकि 2 से 2/5 लीटर मूत्र रोज बने ।
आहार में प्रोटीन , नाइट्रोजन तथा सोडियम की मात्रा कम हो ।
ऐसे पदार्थ न लिये जाये जिनमें आक्जेलेट की मात्रा अधिक हो ; जैसे चॉकलेट , सोयाबीन , मूंगफली , पालक आदि ।
कोकोकोला एवं इसी तरह के अन्य पेय से बचें ।
विटामिन - सी की भारी मात्रा न ली जाये ।
नारंगी आदि का रस ( ज्यूस ) लेने से पथरी का खतरा कम होता है ।
विविध प्रकार की पथरियाँ , जिनमें से कुछ कैल्सियम आक्जेलेट से बनी हैं और कुछ यूरिक एसिड की बनी होती हैं ।
अंग प्रत्यारोपण से अभिप्राय किसी शरीर से एक स्वस्थ और कार्यशील अंग निकाल कर उसे किसी दूसरे शरीर के क्षतिग्रस्त या विफल अंग की जगह प्रत्यारोपित करने से है ।
किसी रोगी के एक अंग को उसी रोगी के किसी दूसरे अंग मे प्रत्यारोपित करना भी अंग प्रत्यारोपण की श्रेणी मे आता है ।
`` अंग दाता जीवित या मृत दोनो हो सकता है । ``
`` जो अंग प्रत्यारोपित हो सकते हैं उनमे हृदय , गुर्दे , यकृत , फेफड़े , अग्न्याशय , शिश्न , आँखें और आँत शामिल हैं । ``
प्रत्यारोपण औषधि , आधुनिक चिकित्सा क्षेत्र के सबसे चुनौतीपूर्ण और जटिल क्षेत्रों में से एक है ।
चिकित्सा प्रबंधन क्षेत्र की कुछ सबसे बड़ी समस्याओं में किसी शरीर द्वारा प्रत्यारोपित अंग को अस्वीकार कर देना है -
जहां शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र प्रत्यारोपित अंग के विरुद्ध प्रतिक्रिया कर उसे नकार देता है और इसके कारण प्रत्यारोपण विफल हो जाता है और अब इस प्रत्यारोपित अंग को उस शरीर मे में ही कार्यशील बनाए रखना प्रत्यारोपण औषधि के लिए एक बड़ी चुनौती होती है ।
`` प्रत्यारोपण एक बहुत ही समय संवेदनशील प्रक्रिया है । ``
ऊतक जो प्रत्यारोपित हो सकते हैं उनमे अस्थियाँ , कंडर ( टेंडन ) , कॉर्निया , हृदय वाल्व नसें बाहु , और त्वचा शामिल हैं ।
अधिकांश देशों में प्रत्यारोपण के लिए उपयुक्त अंगों की कमी है ।
अधिकांश देशों में अस्वीकृति के जोखिम को कम करने और आवंटन का प्रबंधन करने के लिए एक औपचारिक प्रणाली है ।
`` कुछ देश यूरोट्रांसप्लांट जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से जुड़े हैं ताकि दाता अंगों की आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सके । ``
प्रत्यारोपण कुछ जैव नैतिक मुद्दे भी उठाता है जैसे मृत्यु की परिभाषा , कब और कैसे एक अंग के लिए सहमति दी जानी चाहिए और प्रत्यारोपण मे प्रयुक्त अंग के लिए भुगतान करना आदि ।
अमीबा पेचिश रोग एक विशेष प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु एंटामीबा हिस्टॉलिटिका ( Entamoeba histolytica ) नामक उपसर्ग से उत्पन्न होता है ।
एंटामीबा दो रूपों में शरीर की वृहत् आंत्र में विद्यमान रहता है ।
इन रूपों को पुटी ( cyst ) और अंडाणु ( ova ) कहते हैं ।
मनुष्य खाद्य एवं पेय पदार्थो द्वारा इस जीवाणु को पुटी रूप में शरीर के अंदर ग्रहण करता है ।
यह पुटी कभी-कभी बृहत् आंत्र में पहुँचकर अडाणु का रूप ग्रहण कर लेती है ।
`` पेचिश के मुख्य लक्षणों में रोगी को तीव्र स्वरूप के उदरशूल के साथ अतिसार होता है तथा गुदा के पास के भाग में तीव्र ऐंठन होती है । ``
ऐसे रोगियों की परीक्षा करने पर अंधनाल ( caecum ) तथा वाम श्रोणीय क्षेत्र ( left iliac region ) में छूने से दाब वेदना ( tenderness ) होती है तथा कुछ ज्वरांश भी रहता है ।
मक्खियाँ पेचिश रोग के प्रसार में अत्यधिक सहायक होती हैं ।
`` दिन में 12 से लेकर 24 तथा उससे भी अधिक बार टट्टी होती है तथा मल में अधिकांश भाग श्लेष्मा ( mucus ) तथा गाढ़ा रक्त रहता है । ``
कभी-कभी यह अमीबा जब निर्वाहिका शिरा ( portal ) में पहुँच जाता है तथा यकृतशोय ( epatitis ) तथा यकृत विद्रधि ( abscess ) फोड़ा उत्पन्न करता है ।
यकृत विद्रधि तीव्र स्वरूप का घातक रोग है ।
जब यकृत विद्रधि फटती है , तो उपद्रव स्वरूप इसका पूय फुफ्फुस , आमाशय , बृहत् आंत्र , उदर कला ( peritoneum ) तथा हृदयावरण ( pericardium ) में पहुँचकर अनेक घातक विकार उत्पन्न करता है ।
यकृत विद्रधि के मुख्य लक्षणों के अंतर्गत रोगी के यकृत भाग में तीव्र शूल होता है , जो कभी-कभी दाहिने कंधे की ओर प्रसारित होता है ।
इसके अतिरिक्त शिर शूल , कंपन तथा ज्वर भी अपनी चरम सीमा पर रहता है ।
`` यकृत के भाग को छूने मात्र से रोगी को घोर कष्ट एवं वेदना होती है तथा उसके ऊपर की त्वचा शोधयुक्त हो जाती है । ``
यकृत विद्रधि रोग से बचने के लिये समस्त खाद्य एवं पेय पदार्थों को मक्खियों से दूर रखना चाहिए ।
जिस व्यक्ति के मल से इस रोग की पुटिया निकलती है , उस व्यक्ति को रसोइए का कार्य नहीं करना चाहिए जब तक मल के द्वारा रक्त एवं श्लेष्मा का निकलना बंद न हो जाये ।
पेचिश के रोगी को बार्ली का सेवन कराना चाहिए ।
यदि आँखों का पावर अधिक हो तो कांटेक्ट लेंस पहनना चाहिये ।
कांटेक्ट लेंस उम्दा क्वालिटी की होनी चाहिये ।
नियमित आँखें धोना अच्छी आदत है ।
जब श्लेष्मा का निकलना बंद हो जाये तब पेचिश रोगी को पतला साबूदाना , अरारोट , चावल , दही इत्यादि का सेवन करा सकते हैं ।
आँखों के अच्छे स्वास्थ्य के लिये विटामिन ’ए’ युक्त आहार करना चाहिये ।
नियमित्त योग करने से भी आँखों का स्वास्थ्य अच्छा रहता है ।
आपकी आँखें अनमोल हैं , इनकी रक्षा करें ।
गर्भाशय की रसौली , फाइब्रायड या लियोमयोमा स्त्रियों मे पाया जाने वाला सबसे सामान्य ट्यूमर है ।
करीब 30 से 40% महिलाओं में यह गाँठ पाई जाती है ।
नियमित सोनोग्राफी जाँच से यह तथ्य सामने आया है ।
बहुत से मामलों में यह कुछ भी लक्षण उत्पन्न नहीं करती परन्तु कई मामलों में पीड़ा रक्तस्त्राव और बंध्यता का कारण बनती है ।
अधिकांशतः यह 30-40 वर्ष की आयु की महिलाओं में देखने को मिलती है ।
कम उम्र की किशोरियाँ भी कभी - कभी इससे ग्रस्त हो जाती हैं ।
रजोनिवृत्ति होने पर रसौली का आकार छोटा हो जाता है ।
लेकिन हार्मोन थेरैपी लेने पर पुनः आकार बड़ा हो सकता है ।
गहरेरंग वाली महिलाओं में गोरे रंग वाली महिलाओं के तुलना में यह बीमारी अधिक पायी जाती है ।
बच्चे नहीं या कम होने से इस के होने की संभावना और बढ़ जाती है ।
परिवार नियोजन की गोलियों का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं में भी यह बीमारी कम देखने को मिलती है ।
कम उम्र में माहवारी होने से फाइब्रायड खतरा बढ़ जाता है ।
परिवार में माता , बहन आदि को यदि फाइब्रायड ट्यूमर हो तो इसके होने की संभावना बढ़ जाती है ।
शराब , सिगरेट एवं मांस के सेवन से भी खतरा बढ़ जाता है ।
शाकाहार फाइब्रायड से बचने में मदद करता है ।
यह मांसपेशियों और फाइब्रस टिश्यू की गाँठ होती है ।
लगभग 20 से 30 % फाइब्रायड लक्षण रहित होते हैं ।
असामान्य , अधिक रक्तस्त्राव , मासिक के समय दर्द ।
पेडू में दर्द , कमर का दर्द ।
बच्चेदानी के अंदर गाँठ की वजह से बंध्यता ।
दबाव पड़ने से होने वाले लक्षण - मूत्रत्याग में परेशानी ।
ऑपरेशन से प्रसव की आवश्यकता पड़ना ।
प्रसवोपरान्त अधिक रक्तस्त्राव के कारण रक्त्ताल्पता होना ।
कई बार फाइब्रायड के निदान में परेशानी होती है ।
अंडाशय की गाँठ एंडोमेट्रियोसिस , प्रेगनेंसी एडिनोमायोसिस आदि में भी बच्चादानी बड़ी हो जाती है ।
आवश्यक जाँचे ।
सोनोग्राफी , पेट से एवं योनिमार्ग से ।
मात्र रसौली की उपस्थिति ही उसे निकाले जाने की अनिवार्यता नहीं है ।
सबम्यूकस फ्राइबायड यदि छोटा हो तो उसे हिस्टेरोस्कोपी गर्भाशय की दूरबीन से निकाला जा सकता है ।
लेसर द्वारा भी सबम्यूकस फ्राइबायड निकाला जा सकता है ।
इंट्राम्यूरल फाइब्रायड को निकालने के लिए पहले यह देखना होता है कि महिला की आयु कितनी है , बच्चे है कि नहीं , परिवार पूर्ण है या नही , महिला क्या चाहती है ।
मायोमेकटोमी आपरेशन हिस्टेरोस्कोपी या लेपेरोस्कोपी द्वारा अथवा लेपेरोटोमी ( पेट खोल कर ) द्वारा किया जा सकता है ।
कम आयु की महिलाएँ , जिन्हें और बच्चे चाहिए उनके केस में सिर्फ गाँठ निकाली जाती है ।
हिस्टेरेक्टोमी: यदि उम्र कम न हो , गाँठ अधिक बड़ी हो और बच्चों की आवश्यकता न हो तो पूरा गर्भाशय गाँठ सहित निकाल दिया जाता है ।
लेप्रोस्कोपिक मायोलिसिस में सुन्न करके जांघ की धमनी से एक नलिका अंदर डाल कर उसमें से पाली विनाइल कणिकाओं या जेलफोम पाउडर डालकर यूटेराइन आर्टरी को अवरूद्ध कर दिया जाता है ।
इससे रसौली को मिलने वाली रक्त की सप्लाई बंद हो जाती है और रसौली 60 % तक छोटी हो जाती है ।
स्तन कैंसर महिलाओं के लिए एक भयावह नाम है ।
शुरूआती दिनों में स्तन कैंसर की पहचान न होने से हजारों मौतें होती हैं ।
कैंसर में ज्यादातर लोग मानसिक व आर्थिक रूप से टूट जाते हैं ।
यदि स्तन कैंसर की पहचान शुरूआती स्थिति में ही हो जाए तो बिना शारीरिक विकृति के इसका इलाज संभव है ।
साथ ही शतप्रतिशत मरीज को रोगमुक्त भी किया जा सकता है ।
इस प्रकार लाखों महिलाओं एवं परिवारों को मानसिक व आर्थिक यंत्रणा से बचाया जा सकता है ।
आज के दौर में सामाजिक व रहन सहन की आदतों आदि में बदलाव से स्तन कैंसर का प्रसार बहुत तेजी से हो रहा है ।
अभी तक कैंसर जाँच की कई विधियां जैसे मैमोग्राफी , एम आर आई , सी टी स्कैन आदि उपयोगी तो हैं पर इन में किसी न किसी रूप से विकिरण का दुष्प्रभाव देखने में आता है ।
ऎसी स्थिति में चिकित्सकों के हाथ में एक नया हथियार लगा है- इन्फ्रारेड थर्मोग्राफी ।
इन्फ्रारेड थर्मोग्राफी में घातक विकिरण के दुष्प्रभाव के स्तन कैंसर की जल्द से जल्द जाँच की जा सकती है ।
ग्रीक व इजीप्शियन चिकित्सक स्तन कैंसर बीमारी व शरीर के तापक्रम को जानते थे ।
इन्फ्रारेड व उष्मा विकिरण की खोज सर विलियम हर्षल ने 1800 में की थी ।
परंतु 1970 तक यह निश्चित नही था कि इन्फ्रारेड का उपयोग चिकित्सा के क्षेत्र में किया जा सकता है ।
स्तन थर्मोग्राफी कैंसर की बहुत ही शुरूआती दौर में पहचानने में मदद करता है ।
स्तन थर्मोग्राफी से लाखों महिलाएँ लाभान्वित हो सकती हैं ।
इन्फ्रारेड थर्मोग्राफी का उपयोग डायबिटीज रक्तवाहिनियों के संकरे होने आदि की पहचान में भी किया जा सकता है ।
अगर ब्रेन में सूजन , ब्रेन ट्यूमर या मेनेनजाइटिस है तो इंट्राकेनियल वेंस का प्रेशर बढ़ जाता है ।
’रयूमोटाइडाआर्थराइटिस’ या फिर ’स्पोंडिलाइटिस’ अगर हो तो आँखों में सूजन आ जाती है ।
’ब्लडप्रेशर का आँखों पर काफी असर पड़ता है ।
ब्लडप्रेशर से आँखों की नसें बन्द हो सकती है या फिर ब्लीडिंग हो सकती है ।
इससे आँखों की रोशनी भी जा सकती है ।
आँखों के द्वारा किडनी और सिर की सभी बीमारियों का पता आसानी से लगाया जा सकता है ।
आँखों पर हुआ कुछ भी परिवर्तन सीधा किडनी पर असर करता है ।
डायबिटीज हमारे शरीर को कितना क्षतिग्रस्त करती है , इसका भी आँखों से ही पता लगाया जा सकता है ।
’क्लोरोक्वीन’ दवा लेने से आँखों की रोशनी पूरी तरह से जा सकती है ।
’वियाग्रा’ से आँखों की नजर कमजोर हो सकती है ।
अगर किसी को डायबिटीज हो तो आँखों की तकलीफ न होने पर भी डाक्टर के पास अवश्य जाएँ ।
4 साल के बाद बच्चे की आँखों की जाँच अवश्य कराएं ।
इससे अगर उस की आँखों में कोई परेशानी होगी तो उसे ठीक किया जा सकता है ।
छोटे बच्चों में अगर आँखों में तिरछेपन की शिकायत हो तो कई बार बिना आपरेशन भी उसे ठीक किया जा सकता है ।
उम्र के साथ साथ आँखों की जाँच साल में कम से कम एक बार अवश्य करानी चाहिए ।
विजन सिंड्रोम होने पर व्यक्ति को लगातार चेकअप कराना चाहिए ।
बिना डाक्टर के परामर्श लिए कोई भी दवा आँखों में न डालें ।
अगर किसी व्यक्ति के चाचा ,मामा ,पापा या मां को मोतियाबिंद है तो नियमित जाँच करानी चाहिए ।
मोतियाबिंद से आँखों का प्रेशर बढ़ सकता है , जिस से नसें खराब हो सकती है ।
कई बार आँखों में जल्दी ’ केटरेक्ट ’ आ जाती है ।
कभी सूर्य की ओर नंगी आँखों से न देखें ।
सूर्य की अलट्रावायलट किरणों से आँखों को हमेशा बचाने की आवश्यकता होती है ।
हरी घास पर चलने से आँखों की रोशनी नहीं बढ़ती ।
हरी घास केवल पैरों को तरावट या ठंडक पहुंचाती है ।
चश्मा लगाने से आँखों की पावर कम या न लगाने से अधिक होना , ऐसा कभी नहीं होता ।
टीवी , कंम्प्यूटर या कम रोशनी से हमारी आँखें खराब नहीं होती ।
किसी भी प्रकार की एक्सरसाइज आँखों की रोशनी नहीं बढ़ा सकती ।
आर्थराइटिस शब्द के माने हैं ’जोड़ों की सूजन’ और 100 से भी ज्यादा अलग-अलग प्रकार के जोड़ों में सूजन को आर्थराइटिस की श्रेणी में रखा जाता है ।
आर्थराइटिस रोग किसी भी उम्र में अपनी गिरफ्त में ले सकता है ।
बच्चों में भी आर्थराइटिस रोग को देखा गया है ।
50 वर्ष और इस से अधिक आयु के लोगों में यह रोग आम बात है ।
50 वर्ष और इस से अधिक आयु के लोगों में यह रोग गंभीर अवस्था में व अधिक पीड़ादायक भी होता है ।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है , आर्थराइटिस के मामले भी बढ़ते जाते हैं ।
65 वर्ष से कम उम्र के हर 5 में से 3 व्यक्ति आर्थराइटिस के रोगी देखे गए हैं ।
यदि आर्थराइटिस का निदान और उपचार समय पर न किया जाए तो इससे शरीर के जोड़ों और हड्डियों को काफी नुकसान पहुँचता है ।
यों तो आर्थराइटिस दुनियाभर की महिलाओं को प्रभावित करने वाला रोग है ।
हमारे देश में कुछ खास क्रियाओं के चलते महिलाओं को यह रोग ज्यादा ही प्रभावित करता है जैसे शौचादि के लिए बैठना या घरेलू काम के लिए जमीन पर बैठना ।
घुटनों का जोड़ वास्तव में जाँघ की हड्डी (फीमर) और पैर की हड्डी (टिबिया) के बीच का जोड़ है ।
एक बार नष्ट हो चुके कार्टिलेज को किसी भी दवा से दोबारा ठीक नहीं किया जा सकता ।
कार्टिलेज को हुए नुकसान की वजह से आर्थराइटिस से ग्रस्त मरीज को चलने , सीढ़ियाँ चढ़ने और नीचे बैठने या फिर नीचे बैठकर स्नान करने जैसी गतिविधियों में भी दिक्कत आती है ।
आर्थराइटिस का सही निदान अगर समय रहते हो जाए तो इस रोग से काफी हद तक राहत मुमकिन है ।
जल्द उपचार का मतलब होता है जोड़ों को कम नुकसान पहुँचना और इस वजह से मरीज को कम पीड़ा सहनी पड़ती है ।
आमतौर पर आर्थराइटिस के गंभीर होने पर सर्जरी की सलाह भी दी जाती है ।
जिन मरीजों में आर्थराइटिस आरंभिक अवस्था में पहुँचा होता है उनके लिए ’यूनीकंपार्ट्मेंटल नी रीसरफीसिंग एवं हिप रीसरफीसिंग’ जैसे विकल्प बेहद फायदेमंद रहते हैं ।
समूचे जोड़ को प्रभावित करने वाले आर्थराइटिस की स्थिति में टोटल हिप/नी रिप्लेसमेंट (टीकेआर) उपयोगी है ।
टीकेआर का यह मतलब नही होता कि मरीज के घुटने को हटा कर मैटल इंप्लांट लगाया जाता है ।
टीकेआर में हड्डियों के अन्त में एक नई सतह लगाई जाती है ।
घुटना प्रत्यारोपण में नवीनतम विकल्प है रोटेटिंग प्लेटफार्म हाई फ्लेक्सियन नी , जिससे मरीज को चलने फिरने , बागवानी के दौरान झुकने , ड्राइविंग के लिए बैठने या व्यायाम करने , सीढ़ियां उतरने चढ़ने जैसी तमाम गतिविधियों में सुविधा मिलती है ।
हाई फ्लेक्सिन घुटनों से 155 डिग्री तक मुड़ना मुमकिन होता है ।
रोटेटिंग प्लेटफार्म हाई फ्लेक्सियन नी प्रत्यारोपण करा चुके मरीजों को आज कहीं ज्यादा संतुष्टि महसूस होती है और वे बेहतर तरीके से अपनी दैनिक गतिविधियों को अंजाम दे पाते हैं ।
उचित चिकित्सीय देखभाल , शल्यचिकित्सीय विकल्पों और संतुलित जीवन पद्धति तथा खानपान की उचित आदतों को अपनाने से आर्थराइटिस जैसे महारोग से काफी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है ।
दवा और सर्जरी के अलावा संतुलित खानपान भी आर्थराइटिस रोग से सही ढंग से निबटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
विटामिनों , खनिजों , एंटीआक्सीडेंट , तथा अन्य पोषक तत्त्वों की मात्रा बढ़ाएँ और ऎसा करने से आप अपने वजन को नियन्त्रित रख सकते हैं ।
मोटापा बढने से आर्थराइटिस की स्थिति गंभीर बनती है ।
ताजे फलों और सब्जियों का सेवन ज्यादा से ज्यादा करें और खासतौर से विटामिन सी युक्त फल जैसे सेब , संतरा , चैरी , पैपर्स , टमाटर , चुकंदर , शकरकंदी आदि खूब खाएँ ताकि जोड़ सुरक्षित बने रहें ।
साबूत अनाज , जौ और ब्राउन राइस जैसे रेशेदार भोजन से भी सेहत और खासकर जोड़ो को स्वस्थ बनाए रखने में मदद मिलती है ।
तलाभुना भोजन लेने से बचें ।
कैल्सियमयुक्त भोजन आदि का सेवन ज्यादा से ज्यादा करें ।
कैल्सियमयुक्त भोजन हड्डियों को सुरक्षित रखते हैं ।
नियमित व्यायाम करने से भी जोड़ों के आसपास की मांसपेशियां मजबूत बनती हैं ।
शरीर के किसी भाग पर कोई मस्सा , गाँठ या घाव कई महीनों से हो और जल्दी सूखता भी नहीं हो तो सतर्क हो जाइए , यह स्किन कैंसर हो सकता है ।
त्वचा का कैंसर प्रायः एक छोटी गाँठ के रूप में प्रगट होता है ।
यह गाँठ शरीर के किसी भी स्थान पर हो सकती है जैसे हाथ , पैर , चेहेरे आदि पर ।
गाँठ या तो सामान्य रंग की हो सकती है या फिर काले रंग की ।
प्रारंभिक अवस्था में गाँठ दर्दरहित होती है और इसी कारण हम से भयंकर भूल हो जाती है ।
गाँठ में दर्द न होने से मरीज गाँठ के इलाज की ओर ध्यान नहीं देता है ।
गाँठ बढ़ने से उस में दर्द होने लगता है ।
कभी-कभी कैंसर एक छोटे घाव के रूप में प्रगट होता है ।
घाव में कैंसर होने की अवस्था में प्रायः दर्द नहीं होता है ।
घाव का कैंसर बढ़ता जाता है और एक अवस्था आती है कि उस में दर्द होने लगता है ।
कभी-कभी हानिरहित गाँठ में कैंसर पैदा हो जाता है ।
अतः किसी गाँठ को भूलें नहीं ।
अगर शरीर में हानिरहित गाँठ है तो निम्न लक्षणों के प्रति सचेत रहें ।
गाँठ में घाव बनना ।
गाँठ का तेजी से बढ़ना ।
गाँठ में दर्द होना ।
गाँठ में रंगपरिवर्तन होना ।
शरीर के किसी भी अंग का कैंसर या तो रक्त से फैलता है या फिर लसिका वाहिनियों से ।
जो कैंसर रक्त के द्वारा फैलते हैं , ज्यादा खतरनाक होते हैं ।
त्वचा का कैंसर प्रायः लसिका वाहिनियों के द्वारा ही फैलता है ।
अतः आमतौर से त्वचा का कैंसर धीरे-धीरे फैलता है ।
त्वचा के कैंसर का इलाज कैंसरग्रस्त त्वचा को काटकर किया जाता है ।
कैंसरग्रस्त त्वचा के साथ ही स्वस्थ त्वचा भी काटकर निकाली जाती है , जिससे कैंसर रह जाने का खतरा समाप्त हो जाए ।
कैंसरग्रस्त त्वचा के साथ ही कभी-कभी लसिका ग्रंथियों को भी काटकर निकाल दिया जाता है ।
यह कैंसर की तीव्रता पर निर्भर करता है कि कैंसरग्रस्त ग्रंथियों को काट कर निकालना है या नहीं ।
जननागों की त्वचा का कैंसर शरीर के अन्य अंगों की त्वचा के कैंसर से भिन्न होता है ।
जननागों की अन्य बीमारियाँ भी झिझक के कारण बढ़ती रहती हैं और उनका समुचित उपचार नहीं हो पाता है ।
महिला जननागों के कैंसर होने की अवस्था में जननागों की त्वचा काटकर निकाल देते हैं ।
अगर कैंसर लसिका ग्रंथियों तक फैल गया है तो लसिका ग्रंथियों को भी काटकर निकालना पड़ता है ।
त्वचा पर होने वाली प्रत्येक गाँठ का परीक्षण अवश्य कराएँ ।
अगर कोई गाँठ सालों से है तो गाँठ की वृद्धि करने की अवस्था में परीक्षण कराना आवश्यक है ।
अगर त्वचा की गाँठ में दर्द होने लगे तो सावधान हो जाइए तथा कैंसर का परीक्षण अवश्य कराइए ।
अगर गाँठ में घाव बन जाए तो भी सतर्क होना आवश्यक है ।
त्वचा पर होने वाला प्रत्येक ऐसा घाव , जो 2 सप्ताह में ठीक नहीं होता है , कैंसर की तरफ संकेत करता है ।
शिशु रोग विशेषज्ञ डा. कुमार का मानना है , बच्चे की अच्छी बढोत्तरी व विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया रहती है ।
कभी-कभी कम खाना-पीना होने से वजन का कम होना अथवा कम क्रियाशील होना एक सामान्य लक्षण ही है ।
बच्चे के स्वास्थ्य को लेकर अधिक अधीरता नहीं दिखानी चाहिए ।
परवरिश को चिन्ता न बनाकर बच्चे के साथ अधिक से अधिक खुशनुमा पल बिताने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए ।
सर्वे करने पर भी यही तथ्य सामने आया है कि जो माँ बच्चों के ज्यादा आगे पीछे घूमती हैं उन के स्वास्थ्य के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं ।
वे बच्चे सामान्यतः अपनी ही उम्र के और बच्चों के बनिस्बत कम पनपते हैं ।
अतः बच्चे का ध्यान उतना ही रखें जितने उसको जरूरत है ।
कभी बच्चा बीमार या किसी वजह से दुखी हो तो तब भी एकदम व्याकुलता न दिखाएँ ।
स्थिति को देखते हुए धैर्य , विश्वास डगमगाने न दें ।
शारीरिक ही नहीं , मानसिक और भावनात्मक रूप से भी पुरूष और महिला की बनाबट में भिन्नता है ।
एक सांख्यिकी के अनुसार , पुरूषों के रोग यद्यपि गहन हुआ करते हैं , परंतु उनकी संख्या कम होती है ।
महिलाओं में स्वस्थ महिलाओं की संख्या पुरूषों के अनुपात में कम होती है ।
अस्वस्थ्य महिलाएँ संख्या में अधिक होती हैं ।
महिलाओं के रोग अधिकतर उन के उदर , स्तन , गर्भाशय , प्रजनन अंगों आदि से संबंधित ही होते है ।
प्रजनन के समय शिशु स्तनपान या गर्भधारण के समय होने वाली असावधानियाँ , भविष्य में स्त्रियों के लिए घातक ही सिद्ध ही होती हैं ।
थोड़ी सी सावधानी , और थोड़ी से सजगता और थोड़ा ज्ञान स्त्रियों को कई रोगों से बचा सकता है ।
महिलाओं में कई ऎसी बीमारियाँ होती हैं , जिनके बारे में उन्हें खुद भी पता नहीं होता ।
संस्था ’बांबे हेल्थ गाइड’ ऎसी ही महिलाओं को उन की बीमारियों के बारे में तथा उनसे बचने के लिए विस्तार से बताती है ।
स्त्रियों में सबसे अधिक रोग गर्भाशय से संबंधित होते हैं ।
अधिकांश महिलाएँ अपने डाक्टर से अपने गर्भाशय या गुप्त अंगों के विषय में बातचीत करते हुए शरमाती हैं , हिचकिचाती हैं ।
कई बार विशेषकर गाँवों , कसबों , झोंपड़पट्टी , चालों में रहने वाली स्त्रियाँ अपने आप कई दवाएँ खा लेती हैं , घरेलू इलाज कर लेती हैं , जो कई बार घातक सिद्ध होते हैं ।
अपने मन का कुछ भी खा लेना खतरनाक और जानलेवा साबित हो सकता है ।
हर गाँव में अस्पताल और सरकारी दवाखाना उपलब्ध है , जहाँ मुफ्त में सलाह या दवा भी मिलती है ।
स्त्रियों में मुख्यतः जो बीमारियाँ होती हैं , वे हैं- अस्थमा , गर्भाशय में सूजन या अधिक रक्त प्रवाह , गुप्तांगों का इन्फेक्शन या स्तन कैंसर ।
स्तन कैंसर आजकल की एक मुख्य बीमारी है ।
तीव्र गति से बढ़ती स्तन कैंसर की बीमारी की संख्या आज संपूर्ण देश के लिए चिंता का विषय है ।
इंडियन ब्रेस्ट कैंसर एसोसिएशन की एक विज्ञप्ति के अनुसार पश्चिमी देशों की स्त्रियों में स्तन कैंसर का अनुपात बहुत अधिक है ।
स्तनकैंसर रोकने और कम करने का भी उपाय है ।
स्तनकैंसर को समाप्त नहीं किया जा सकता है , पर इसकी वृद्धि पर अंकुश जरूर लगाया जा सकता है ।
भारत सरकार के साथसाथ ड्ब्ल्यू.एच.ओ. भी इस ओर काफी प्रयत्नशील है ।
डब्ल्यू.एच.ओ. के अनुसार `` स्तन कैंसर की जितनी रोगी हैं , उनमें से 80% रोगी ऎसी हैं , जिन्होनें शिशु प्रजनन के पश्चात अपने शिशु को अपने स्तन से दूध नहीं पिलाया है `` ।
जब नवजात शिशु अपनी माँ के स्तन से दुग्धपान करता है तो शिशु के लिए यह अमृतपान होता है ।
साथ ही साथ वह अपनी माँ को भी कई बीमारियों से बचाता है ।
स्तनपान सिर्फ़ प्राणदायक अमृत ही नहीं बल्कि जननी के लिए भी प्राणरक्षक है ।
महिलाओं में होने वाले रोगों की संख्या कम नहीं है , पर उन से बचा जा सकता है ।
इस सब के लिए जो सबसे आवश्यक है वह है महिलाओं में जागरुकता , अपने स्वास्थ्य के प्रति सजगता ।
डब्ल्यू.एच.ओ. का प्रयास बड़े पैमाने पर पूरे संसार में चल रहा है और उसका दावा है कि आने वाले वर्षों में महिलाओं को जागरूक बनाकर उन्हें कई प्रमुख बीमारियों से बचाया जा सकता है ।
आमतौर पर सार्वजनिक शौचालय में पेशाब करने , कम पानी पीने तथा यौनांगो की ठीक से सफाई न होने से यूरिन इंन्फेक्शन हो जाता है ।
यूरिन इंन्फेक्शन का विकृत रूप है योनिमार्ग में सूजन व पेशाब का तकलीफ़ से आना ।
जलन का कारण इकोलाई जीवाणु का बढ़ जाना ही है ।
यूरिन इन्फेक्शन के प्रमुख लक्षण ।
पेशाब में जलन व रुक-रुक कर आना ।
अंग में सूजन व लालिमा ।
यूरिन ट्रैक में दर्द व जलन ।
सार्वजनिक शौचालयों के प्रयोग से बचें ।
गंदे , गीले अंडरगारमेंट से बचें ।
गंदे हाथों के उपयोग से बचें ।
खूब पानी पिएँ ।
साफ कपड़ों का उपयोग ।
हरी सब्जियां व फल का सेवन ।
साथी के प्रति वफादारी ।
चावल बहुत गुणकारी होता है ।
चावल हलक़ा व सुपाच्य भोज्य है ।
ताजा पका हुआ भात खाना पथ्य है ।
यदि रात्रि के भोजन में रोटी कम खाएँ और चावल प्रतिदिन खाएँ तो यह हलक़ा भोजन आपका स्वास्थ्य ठीक रखेगा ।
चावल मंदाग्नि नाशक , सुपाच्य , शरीर में खून बढ़ाने वाला , शीघ्र पचने वाला , अतिसार व पेचिश में पथ्य भोजन है ।
तीन साल पुराना चावल काफी स्वादिष्ट व ओजवर्धक होता है ।
चावल को मांड सहित खाना चाहिए ।
मांड अलग कर देने से चावल के प्रोटीन , खनिज , विटामिन्स निकल जाते हैं और यह बेकार भोजन कहलाता है ।
मांड यानी चावल पकाते समय बचा हुआ गाढ़ा सफेद पानी होता है ।
इसमें प्रोटीन , विटामिन्स व खनिज होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते हैं ।
जिनका पेट कमजोर हो यानी जो आसानी से भोजन न पचा पाते हों , उन्हें चावल में दूध मिलाकर 20 मिनट तक ढँककर रख दें , फिर खिलाएँ तो आराम होगा ।
चावल के औषधीय उपयोग भी हैं , कई रोगों में यह लाभ करता है ।
सीने में या पेट में जलन , सूजाक , चेचक , मसूरिका , मूत्रविकार में नीबू के रस व नमक रहित चावल का मांड या कांजी सेवन करने से लाभ होता है ।
चावल , दाल ( खासकर मूँग की ) , नमक , मिर्च , हींग , अदरक , मसाले मिलाकर बनाई गई खिचड़ी में घी मिलाकर सेवन करने से शरीर को बल मिलता है , बुद्धि विकास होता है व पाचन ठीक रहता है ।
अतिसार में चावल का आटा लेई की भांति पकाकर उसमें गाय का दूध मिलाकर रोगी को सेवन कराएँ ।
पेट साफ न हो तो भात में दूध व शकर मिलाकर सेवन करने से दस्त के साथ पेट साफ हो जाता है ।
भात को दही के साथ मिलाकर खाने से यदि दस्त लगे हों तो बंद हो जाते हैं ।
यदि भांग का नशा ज्यादा हो गया हो तो चावल धोकर निकाले पानी में खाने का सोडा दो चुटकी व शक्कर मिलाकर पिलाने से नशा उतर जाता है ।
चावल धोकर निकाले पानी में खाने का सोडा दो चुटकी व शक्कर मिलाकर बना पेय मूत्र विकार में भी काम आता है ।
सूर्योदय से पूर्व चावल की खील 25 ग्राम लेकर शहद मिलाकर खाकर सो जाएँ ।
सप्ताहभर में आधासीसी सिर दर्द दूर हो जाएगा ।
चावल धुले पानी में चावल के पौधे की जड़ पीसकर छान लें और इसमें शहद मिलाकर पिला दें । यह हानिरहित सुरक्षित गर्भनिरोधक उपाय है ।
`` प्याज के रस का नाभि पर लेप करने से पतले दस्त में लाभ होता है । ``
अपच की शिकायत होने पर प्याज के रस में थोड़ा सा नमक मिलाकर सेवन करें ।
सफेद प्याज के रस में शहद मिलाकर सेवन करना दमा रोग में बहुत लाभदायक है ।
प्याज के रस में शहद मिलाकर सेवन करने से शरीर में खून की कमी दूर होती है ।
यदि गठिया का दर्द सताए तो प्याज के रस की मालिश करें ।
उच्च रक्तचाप के रोगियों को कच्चे प्याज का सेवन अवश्य करना चाहिए , क्योंकि यह रक्तचाप कम करता है ।
उल्टियाँ हो रही हों या जी मिचला रहा हो , तो प्याज के टुकड़े में नमक लगाकर खाने से राहत मिलती है ।
जिन्हें मानसिक तनाव बना रहता हो , उन्हें प्याज का सेवन करना चाहिए ।
यदि दाँत का दर्द है , तो उसके नीचे प्याज का एक छोटा टुकड़ा दबा लीजिए , आराम मिलेगा ।
प्याज के सेवन से आँखों की ज्योति बढ़ती है ।
प्याज में मौजूद एक विशेष रसायन मानसिक तनाव कम करने में सहायक है ।
नाश्ते में खड़ा अनाज उबालकर लें , चोकर से बना केक खाएँ , चोकर में मेग्निशियम पर्याप्त होता है ।
आलू के दो पराठें के साथ लगभग 50 ग्राम दही का सेवन करें , यह ऊर्जा का अच्छा स्रोत है ।
एक मुट्ठी मूँगफली के दाने सेंककर , 10 ग्राम गु़ड़ के साथ चबा-चबाकर नाश्ते के तौर पर सेवन करें , ये ऊर्जा के पर्याप्त भण्डार हैं ।
अक्सर पानी का बदलाव शरीर पर दुष्प्रभाव छोड़ता है ।
सादा नमक का पानी बार-बार पीने से भी गर्मी अधिक परेशान नहीं करेगी ।
यदि आपको पित्त गिरने की शिकायत रहती है तो अपने साथ सेंधा नमक और अजवाइन मिलाकर रखें । दो-तीन बार खा लें ।
लू से बचने के लिए एक प्याज अपने पॉकेट या पर्स में लपेटकर रखें । इसे बार-बार सूँघने से लू नहीं लगेगी ।
कम से कम खाइए , फिर भी अपचन न हो , इसके लिए त्रिकुटी का चूर्ण शहद के साथ सुबह ही खा लीजिए ।
यदि आपकी आँखें जल्दी लाल हो जाती हैं तो आँखों को साफ करने का लोशन व रुई भी साथ में रखिए ।
दीर्घायु , रोग मुक्त तथा स्वस्थ्य जीवन के लिए पौष्टिक एवं सात्विक भोजन अनिवार्य है ।
पौष्टिक एवं सात्विक भोजन रोग मुक्त स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायु का रहस्य है ।
आहार के रहस्य के पश्चात मनुष्य के मानसिक तनाव को दूर कर पॉजिटीव एनर्जी ग्रहण करना लंबी उम्र के लिए अत्यंत अनिवार्य है ।
मनुष्य एकांत में आरामदायक स्थिति में एवं शांत भाव से बैठकर धीरे-धीरे साँस ले और महसूस करे कि दिमाग से सभी चिंताएँ दूर हो रही हैं ।
अपने दिमाग से बुढ़ापे के लक्षणों को धो-डालें और स्वयं को युवा महसूस करें ।
संपूर्ण थकावट दूर होने पर महसूस करें- मैं निगेटिव स्ट्रेस से पूरी तरह दूर हूँ और मुझमें पॉजिटीव शक्ति पूरी तरह आ चुकी है ।
याद रखिए पॉजिटीव सोच मन मस्तिष्क को शांत कर शरीर में जवानी का संचार करती है ।
वहीं निगेटिव सोच बुढ़ापे की प्रक्रिया को तेज करती है और जिंदगी को घटाती है ।
खान-पान में परहेज न करने , सोते समय दाँत साफ न करने , पेट साफ न रहने व कब्ज रहने से मुँह से बदबू आती है ।
नीम या बबूल की नरम डाली का ब्रश बनाकर दाँत साफ करने से दुर्गंध दूर होती है ।
5 ग्राम सौंफ या धनिया या इलायची चबाने से मुख शुद्धि होती है ।
इलायची और पुदीना डालकर पान चबाना लाभकर है ।
इलायची , दालचीनी तथा सूखी पुदीना पत्ती डालकर बनाए गए घोल से गरारे करना दुर्गंध मिटाता है ।
इलायची चबाना भी दुर्गंध रोकता है ।
एक कप पानी में जीरे के तेल की 2-3 बूंदें डालकर गरारे करने से लाभ होता है ।
छुआरे की गुठली के चूर्ण से मंजन करने से साँस की दुर्गंध मिटती है ।
रेकी बीमारी के कारण को जड़ मूल से नष्ट करती हैं
चिन्ता , क्रोध , आतम , लोभ , उत्तेजना , और तनाव हमारे शरीर के अंगों एवं नाड़ियों मे हलचल पैदा करते देते हैं , जिससे हमारी रक्त धमनियों मे कई प्रकार के विकार हो जाते हैं ।
शारीरिक रोग इन्ही विकृतियों के परिणाम हैं ।
शारीरिक रोग मानसिक रोगों से प्रभावित होते हैं ।
अत्याधिक चिंता , निराशा , आत्म ग्लानि , उदासीनता , जरुरत से ज्यादा खुश दिखना , बहुत बोलना या एक दम चुप रहना , संदेह करना , आत्महत्या के प्रयास बीमारी के लक्षण हैं ।
रेकी गठिया , दमा , कैंसर , रक्तचाप , फालिज , अल्सर , एसिडिटी , पथरी , बावासीर , मधुमेह , अनिद्रा , मोटापा , गुर्दे के रोग , आँखों के रोग , स्त्री रोग , बाँझपन , शक्तिन्युनता , पागलपन तक दूर करने मे समर्थ है ।
बीमारी एक दिन मे अचानक नहीं आती है ।
जन्म जात बीमारी को छोड़ कर रेकी के द्वारा सभी बीमारियों का इलाज संभव है ।
रेकी बीमारी के कारण को जड़ मूल से नष्ट करती है , स्वास्थ्य स्तर को उठाती है , बीमारी के लक्षणों को दबाती नहीं है ।
रेकी के द्वारा मानसिक भावनाओं का संतुलन होता है और शारीरिक तनाव , बैचेनी व दर्द से छुटकारा मिलता जाता है ।
अच्छा रेकी चैनल बनने के लिये इच्छा सभी के मन मे होती है ।
हीलर बनने के लिया मानसिक शांति तथा जीवनदायिनी शक्ति की आवश्यकता होती है ।
हीलिंग का अर्थ है रोग मुक्ति तथा हीलर का अर्थ है वह व्यक्ति जो आलौकिक शक्ति द्वारा रोग ठीक कराने की शमता रखता हो ।
हीलर बीमार व्यक्ति का उपचार हाथों की ऊर्जा से करता है ।
स्पर्श तरंगे रोगी को स्वस्थ करती हैं ।
अच्छे चैनल मे श्रद्धा , विश्वास , आत्मीयता , सहनशक्ति तथा अभ्यास जैसे गुणों की आवश्यकता होती है तभी वह सफल उपचारक बन सकता है ।
रेकी आचार्य अर्थात रेकी ग्रैंड मास्टर के सिद्ध हाथों के द्वारा दी जाने शक्तिशाली ऊर्जा शक्तिपात कही जाती है ।
रेकी शक्तिपात हर कोर्स मे किया जाता है ।
शक्तिपात के बाद विद्यार्थी सर्व व्यापी प्राणशक्ति के स्रोत से जुड़ जाता है ।
रेकी एक दैवीय शक्ति है जो चैनल के हाथो मे जीवन भर रहती है ।
शक्तिपात के द्वारा रेकी गुरू विद्यार्थी को ब्रह्मांडीय ऊर्जा शक्ति से जोड़ देता है और उसके जीवन का रूपांतरण हो जाता है ।
जो व्यक्ति जितना संवेदनशील होता है उतनी ही जल्दी वह दैवीय शक्ति से जुड़ जाता है ।
रेकी शक्तिपात दूरस्थ { distant Attunement } भी किया जाता है ।
रेकी मास्टर बनाने की क्षमता प्रदान करने वाले आचार्य को रेकी ग्रैंड मास्टर कहा जाता है ।
रेकी ग्रैंड मास्टरशिप रेकी का उच्चतम कोर्स है ।
सैकड़ो - हजारो विद्यार्थी रेकी सीखते हैं परन्तु `` रेकी ग्रैंड मास्टरशिप `` की ऊँचाई तक वे ही पहुँचते है जो रेकी के अभ्यास , प्रचार एवं प्रसार मे पूरे उत्साह से लगे रहते हैं ।
रेकी कोर्स मे शक्ति एवं ऊर्जा बढ़ाने वाले अनेक सिम्बल सिखाये जाते हैं ।
आज्ञा चक्र को खोलने वाला तथा विद्या , वैभव , प्रसन्नता , विजय , अभिव्यक्ति , पूर्णता , प्रेम , व ध्यान को बढ़ाने वाले अनके सिम्बल सिखाये जाते हैं ।
रेकी ऊर्जा को जल में स्थापित करना सिखाया जाता हैं ।
शक्ति चक्र की ग्रीक तथा अमेरिकन पद्धति सिखायी जाती है ।
त्राटक क्रिया द्वारा नेत्रो की चुम्बकीय शक्ति का विकास किया जाता है ।
मास्टर ग्रिड बनाना , सामूहिक उपचार करना , विद्या शक्तिपात तथा स्मृति शक्तिपात भी सिखाया जाता हैं ।
रेकी एक आध्यात्मिक साधना हैं जिसमे शांन्ति संतुलन एवं धैर्य का विकास होता है ओर रेकी ग्रैंड मास्टर बन कर प्राणिमात्र के प्रति कर्तव्य बोध अधिक बढ़ जाता है ।
भारत में हर पाँचवाँ व्यक्ति दिल का मरीज है ।
हृदय रोगियों को हमेशा यह उलझन रहती है कि वे किस प्रकार का भोजन करें या किस प्रकार के भोजन का त्याग करें ।
इस संबंध में हृदय रोग विशेषज्ञों का मानना है कि रोगी को अपने खान-पान में विशेष सलाह लेनी चाहिए ।
अधिक कोलेस्ट्रॉल का सेवन हृदय रोगियों के लिए हानिकारक होता है ।
`` हृदय रोगी को नमक , मिर्च तथा तले-भुने भोजन का प्रयोग कम से कम करना चाहिए या हो सके तो नहीं करना चाहिए । ``
हरी पत्तेदार सब्जियों तथा फल का सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिए ।
यदि हृदय रोगी धूम्रपान , शराब या अन्य किसी नशीली वस्तु का सेवन करता है तो उसे शीघ्र ही इन पदार्थों का सेवन बंद कर देना चाहिए ।
हृदय रोगी को घी , मक्खन इत्यादि का सेवन कम से कम करना चाहिए ।
हृदय रोगी को आँवला तथा लहसुन का सेवन प्रतिदिन करना चाहिए ।
सेब के मुरब्बे का सेवन हृदय रोगियों को विशेषकर करना चाहिए ।
हृदय रोगी को हल्के-फुल्के व्यायाम तथा सुबह की सैर को अपनी जीवनचर्या में अवश्य शामिल करना चाहिए ।
हृदय रोगी को प्रसन्नचित्त रहना चाहिए तथा मानसिक शांति के लिए ध्यान करना चाहिए ।